अध्याय 3

दो शब्द

MEGHnet ब्लॉग पर मैंने दलितों के इतिहास से संबंधित आलेख (चिट्ठेलिखे हैं जो पुस्तकों और इंटरनेट से उपलब्ध सामग्री के आधार पर हैं. ये इतिहास नहीं हैं परंतु कई पौराणिक और आधुनिक सूत्रों को समझने तथा उन्हें एक जगह एकत्रित करने का प्रयास हैअन्य से ली गई सामग्री के लिए संबंधित लेखक या वेबसाइट के प्रति विधिवत् आभार प्रकट किया गया हैमेघनेट के बहुत से आलेख कई अन्य वेब साइट्स और ब्लॉग्स पर मेघनेट के साभार डाले गए हैं जो बहुत संतोष देने वाला है.

कपूरथला के डॉध्यान सिंह को जब मैं मिला था तब उन्हें अपनी मंशा बता कर उनका पीएचडी थीसिस मैं उनसे ले आया था और उसे एक अन्य ब्लॉग 'Hisory of Megh Bhagats' या 'पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकासके नाम से काफी देर से इंटरनेट पर रखा हुआ हैइस ब्लॉग पर कई जिज्ञासु आए हैं.

मन में यह इच्छा थी कि डॉध्यान सिंह के संपूर्ण थीसिस को या उसके कुछ अंशों को यूनीकोड में टाईप कर के इंटरनेट पर डाला जाए जिससे उसे कोई भी हिंदी में पढ़ सकेंइसमें एक खतरा भी था कि कोई भी शोधग्रंथ की सामग्री को आसानी से ब्लॉग से कॉपी कर सकता था और प्रयोग कर सकता थाक्योंकि यह सामग्री मूलतः ध्यान सिंह जी की है अतः मेरा कर्तव्य था कि इसे यथासंभव सुरक्षित रखा जाए और पीडीएफ बना कर लिंक के रूप में अपने विभिन्न ब्लॉग्स पर रख दिया जाए ताकि जिज्ञासु इसे पढ़ सकें.

शोधग्रंथ का यह एक ही अध्याय है जो प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन निश्चित है कि इसमें मेघ भगतों का ज्ञात इतिहास हैमेघों का प्रचीन इतिहास कथा-कहानियों के रूप में हैउन्हें संकेत माना जा सकता हैवास्तविक/विस्तृत इतिहास या तो लिखा ही नहीं गया या उसे आक्रमणकारी कबीलों ने नष्ट कर दियाअतः जो ज्ञात है उसे ही पहले जाना जाए.

डॉध्यान सिंह के साभार और उनके कर कमलों से उनके शोधग्रंथ का तीसरा और मुख्य अध्याय मेघवंशियों को समर्पित है.

भारत भूषणचंडीगढ़.
ईमेल- bhagat.bb@gmail.com


डॉ ध्यान सिंह, Ph.D, मो. 98556-55588, 99149-16660, फोन - 01822-233106.
-मेल पता dr.dhiansingh@gmail.comdr.dhiansingh@yahoo.com

तीसरा अध्याय
1. कबीरपंथ पंजाब प्रान्तीय स्वरूप
2. प्राचीनता पंजाब का आर्यसमाज और कबीरपंथ
3. सिंघ सभा आंदोलन और कबीरपंथ
4. कबीरपंथ जन जातीय समुदाय का सामाजिक रूपान्तरण.

यह निर्विवाद है कि पंजाब के कबीर पंथी मूलतः रियासत जम्मू की पहाड़ियों के निचले क्षेत्र में बसने वाली एक जनजाति से सम्बद्ध हैंयह जनजाति मेघ नाम से विख्यात रही हैइस जनजाति का लिखित इतिहास हमारे पास उपलब्ध नहीं हैऔर न ही कोई ऐसा आधिकारिक ग्रंथ विद्यमान है जिससे हमें ये सूचनाएँ मिल पाएँ कि यह जनजाति किस प्रक्रिया से मूलधारा के एक अछूत वर्ग में रूपांतरित हुई हैइस लिए प्रस्तुत अध्ययन में क्षेत्रीय सर्वेक्षणसाक्षात्कार और सामाजार्थिक परिवेश के आधार पर पंजाब के इस अछूत वर्ग की पृष्ठभूमि और सामाजिक रीति-रिवाजधार्मिक विश्वासों को प्रस्तुत किया गया है.
यद्यपि प्रस्तुत अध्ययन के दौरान हमें अनाधिकारिक कोटि की दो ऐसी पुस्तकें प्राप्त हुई हैं जिनसे हम अपनी प्रकल्पना को साक्षात्कारों के माध्यम से आगे बढ़ा सके हैंइनमें एक पुस्तक है -'मेघवंश इतिहास पुराण'. इसके लेखक अजमेर निवासी श्री स्वामी गोकुलदास डूमड़ा हैंदूसरी पुस्तक 'मेघमालाके लेखक श्री एमआरभगत हैं.
'मेघमालाके लेखक का मानना है कि मेघ नाम पहाड़ों पर विचरने वाले बादलों से लिया गया हैये लोग इधर-उधर भटकते हुए निरीह जीवन व्यतीत करते रहे हैंसाक्षात्कारों और इन पुस्तकों से निश्चित है कि पंजाब के सभी कबीरपंथी लोग मूलतः मेघ कबीले के लोग हैंजम्मू की पहाड़ियों में यह समुदाय घुमंतू स्तर पर थाअंग्रेजों के आने के बाद स्यालकोट जनपद में कातने बुनने के व्यवसायों में भर्ती के तौर पर इनकी मूलधारा में शमूलियत हुई हैकुछ लोग खेत मजदूरों के रूप में ग्रामीण क्षेत्रों में खपाए गए हैं.
जम्मू-कश्मीर में अधिकतर पहाड़ी क्षेत्र हैंखेती के अतिरिक्त वहाँ भेड़ बकरियाँ पालने का काम ही बहुधा होता था.
ध्यान देने की बात है कि भले ही जम्मू और कश्मीर प्रशासनिक रूप से एक ही प्रांत है पर सामाजिक और धार्मिक रूप से इन दोनों क्षेत्रों में सांस्कृतिक भिन्नता रही हैकिसी समय कश्मीर का क्षेत्र बौद्ध धर्म के प्रभाव में रहा हैबौद्ध धर्म के पतन के पश्चात यहाँ शैवों का प्रभाव देखा जा सकता हैतुर्कों के हमलों के बाद यहाँ मुसलमान धर्म का प्रसार ज़ोरों पर थाइस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जो क्षेत्र ब्राह्मण धर्म के प्रभाव के अंतर्गत नहीं थे वहीं अधिकांशतः धर्म परिवर्तन हुए हैंइस धर्मांतरित जनसंख्या का वहाँ के ब्राह्मणिक समुदायों से सामंजस्यपूर्ण संबंध बना रहाइसके विपरीत यदि हम जम्मू क्षेत्र को देखें तो वहाँ की अधिकांश जनसंख्या वैष्णव धर्मावलंबी रही है और राजपूतों और डोगरों का राजनीतिक रूप से वर्चस्व रहा हैब्रिटिश भारत में इस क्षेत्र की औद्योगिक गतिविधियाँ स्यालकोट में केंद्रित हो गई थींस्यालकोट में औपनिवेशिक प्रशासनिक मदद से हिंदु समुदाय के उच्च वर्गों ने स्यालकोट में अपने औद्योगिक प्रतिष्ठान स्थापित कर लिए थेदस्तकार और श्रमिक अधिकांशतः मुस्लिम समुदाय के लोग होते थेऔद्योगिक प्रतिष्ठानों में बढ़ती हुई श्रमिकों की माँग की आपूर्ति आसपास इन घुमंतू कबीलाई लोगों से भर्ती के रूप में की गईभारतीय इतिहास की यह एक पुरानी परंपरा रही है कि कबीलाई अथवा जनजातियों को श्रमिकों के रूप में भर्ती के तौर पर मूलधारा में शामिल किया जाता रहा हैजाहिर है कि ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था में इन्हें शूद्रों अथवा अछूतों की कोटि में रखा गयामेघ जनजाति की मूलधारा में शमूलियत की यही प्रक्रिया रही है. ‘मेघ’ लोग जनजाति के रूप में पहले से ही जम्मू की उच्च जातियों का उत्पीड़न सहते आ रहे थे और अब नई व्यवस्था में वे खेत मज़दूर व कल कारखानों में काम करने वाले श्रमिक थे.
उस दौर के मेघ जाति के नेताओं में बाबू गोपीचन्दभगत बुड्डामलभगत छज्जू रामरणवीर सिंह पुराजम्मू रियासत वाले प्रसिद्ध थेउन्होंने बहुत प्रयत्न किया मगर ज़मींदारों की सूची में नहीं आ सकेहालाँकि बहुत लोग जमीन के मालिक थे और खेती का काम करते थे.
जम्मू में जगत राम एरियन एक भगत ही था और वह विधायक भी रहा हैने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम ‘इस्तगासा--राष्ट्रपति’ थाइस किताब में मेघों को भूमि का मालिक बताया गया है और इन पर होने वाले अत्याचारों के बारे में लिखा गया है.
जैसा कि हम जानते हैं कि केंद्रीय प्रशासन द्वारा अनुसूचित जातियों की सूचियाँ 1931 में तैयार की गई थींउस समय सर फ़जल हुसैन पंजाब में सरगर्म थेजनाब सिकन्दर हयात खानचौधरी छोटू राम और श्री गोपालचन्द नारंग सरकार में मंत्री थेजब अनुसूचित जातियों की सूची बनी तो उसमें भी मेघ जाति को नहीं लिया गयाक्यों कि मेघ मानते थे कि वे अछूत नहीं हैंअपने आपको आर्य अथवा भगत कहलवाते थेरहन-सहन में ब्राह्मणों से तुलना की जाती थीइसलिए ये लोग विशेष रियायतों अर्थात आरक्षण के हकदार नहीं माने गएपरन्तु अन्त में अनेक प्रयत्नों से मेघ जाति को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में शामिल कर लिया गया.
मेघमाला’ का लेखक स्वयं मेघ जनजाति से संबद्ध थाउसने अपने व्यक्तिगत अनुभव दर्ज किए हैंलेखक के पूर्वज कृषि करते थेतवी नदी के किनारे उनकी जमीन थीनदी में हर साल बाढ़ आने के कारण जमीन बह गईकोई और व्यवसाय न रहा तो वे जम्मू की रियासतजहाँ राजपूत क्षत्रिय राज करते थेछोड़कर ब्रिटिश शासन के अंतर्गत पंजाब में जिला स्यालकोट के गाँव सुन्दर पुर में जा बसे.
मेघमाला’ के लेखक ने बताया है कि मेघ जाति के लोग प्राचीन काल से भगत कहलाते आ रहे हैंभगत वो है जो भक्ति करता हैजिस जाति के लोगों की आवश्यकताएँ सीमित हो जाती हैंवे जिस काम में भी लगेंकिसी प्रकार का भी होआय-व्यय का कोई प्रश्न नहींजैसे समय हुआ व्यतीत कर लियाइस स्वाभाविक रहनी के लोग स्वाभाविक भक्त हो जाते हैं.
पंजाब के कबीरपंथ के मूल स्वरूप में जनजाति की उत्पत्ति के बारे में अनेक पौराणिक गाथाएँ और किंवदंतियों की चर्चा की गई हैअन्य अनुसूचित जातियों की तरह पंजाब के कबीर पंथियों ने भी अपनी जनजातीय प्राचीनता और उच्च परंपराओं को खोजने का प्रयत्न किया है. ‘मेघवंश इतिहास’ ग्रंथ इसी प्रकार का ग्रंथ है जिसमें जोड़-तोड़ कर मेघ सामुदायिक की ऋषि परंपरा खोज ली गई है.
मेघवंश इतिहास (ऋषि पुराणनामक ग्रंथ के लेखक स्वामी गोकुलदास ने मेघ जाति के विकास का वर्णन किया हैइन्होंने लिखा है कि ऋषियों की उत्पत्ति और उनकी वंशावली स्मृतियों और पुराणों में विस्तारपूर्वक लिखी हुई हैयहाँ केवल संक्षेप में और वह भी मुख्यतया इस मेघवंश जाति से संबंध रखने वाली वंशावली का वर्णन दिया जा रहा है.
स्वामी जी के अनुसार ब्रह्मा जी के दूसरे पुत्र और अत्री ऋषिअत्ति ऋषिअनुसुइया के ब्रह्माविष्णुमहेश के वचन से दत्तात्रेयदुर्वासा और चंद्रमा ये तीन पुत्र हुएअत्री ऋषि के समुद्रसमुद्र के चंद्रमा, (सोमसे चन्द्रवंश चलाचंद्रमा के बृहस्पतिबृहस्पति के बुद्धबुद्ध से पुरुरवापुरुरवा से आयुआयु के नोहास (नहुषइनके सात पुत्र यतीययातिसंयातिउद्भव पाचीसर्य्याति और मेघ जाति.
ययाति के यदुइनसे यदुवंश चलाब्रह्मा जी के पुत्र वशिष्ट ऋषि की अरुंधति नामक स्त्री से मेघ उत्पन्न हुआ और ब्रह्माजी के पुत्र मेघ ऋषि से मेघवंश चलाब्रह्मा जी के जो 10 मानस पुत्र हैं उन सभी ऋषियों से उन्हीं के नाम अनुसार गोत्र प्रचलित हुएजो अब तक चले आ रहे हैंउनमें वशिष्ठअत्रिअंगिराअगस्त्य आदि गोत्र इस जाति में अभी भी पाए जाते हैंअतः यह स्पष्ट है कि इस जाति का मूलस्रोत इन्हीं ऋषियों से हुआ हैइसीलिए इस जाति की ऋषि उपाधि प्राचीन काल से प्रचलित है.
ब्रह्मा जी के पुत्र मेघ ऋषि थेजिनसे मेघवंश चलाये ब्रह्म क्षत्रिय थेइससे स्पष्ट है कि यह समाज ब्राह्मण और क्षत्रियों का मिला हुआ समाज है क्योंकि इस जाति के बहुत कुछ प्राचीन वंश और गोत्र ब्राह्मणों से मिलते हैं और अधिकांश वंश और गोत्र क्षत्रियों से मिलते हैंइन्हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों में से हिन्दुओं की अनेक जातियों का प्रादुर्भाव हुआआरंभ से ही हिन्दू-समाज की व्यवस्था का विधान कुछ ऐसा रहा है कि थोड़ा-सा भी दोष अथवा त्रुटि रहने पर उसे श्राप देकर श्रेणी से अलग कर दिया जाता थाइस नीति के कारण ही अनेक छोटे-छोटे समूहों की उत्पत्ति होती चली आई है.
क्षत्रियों ने तो स्वार्थवश यहाँ तक किया कि अपने छोटे भाई और उसकी संतान को अपने बराबर का दर्जा तक नहीं दिया और धीरे-धीरे उसे अपने से अलग करके उसकी दूसरी जाति बना दी जैसे राजपूतरावतमीनाजाटअहीर आदि.
इसके विपरीत कई जातियों को अपने अंदर मिलाकर शुद्ध क्षत्रिय और ब्राह्मण भी बना लिएशास्त्रों के अध्ययन से पता चलता है कि समय और आवश्यकता पड़ने पर प्राचीन महर्षि किसी भी जाति को वेदादि विधि से शुद्ध करके ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय बना लेते थे.
श्रीमद्भागवत में एक कथा आती है कि मनधाता के वंश में त्रिशंकु नामक एक राजा हुए हैंवे सदेह स्वर्ग जाने के लिए यज्ञ की इच्छा करके महर्षि वशिष्ट के पास गए और इस प्रकार का यह यज्ञ करने के लिए कहावशिष्ठ जी ने यह कह कर इंकार कर दिया कि मुझे ऐसा यज्ञ कराना नहीं आतायह सुनकर उसने वशिष्ट जी के सौ पुत्रों के पास जाकर उनसे यह यज्ञ कराने को कहा तब उन्होंने उस राजा त्रिशंकु को शाप दे दिया कि तू हमारे गुरु का वचन झूठा समझ कर हमारे पास आया है इसलिए तू चांडाल हो जाएगावह चांडाल हो गयाफिर वह ऋषि विश्वामित्र के पास गयाविश्वामित्र ने उसकी चांडाल हालत देखकर कहा कि हे राजातेरी यह दशा कैसे हुईत्रिशंकु ने अपना सारा वृत्तान्त कह सुनायाविश्वामित्र उसका यह वृत्तान्त सुनकर अत्यंत क्रोधित हुए और उनको यज्ञ करने की स्वीकृति दे दीविश्वामित्र ने राजा त्रिशंकु के यज्ञ में समस्त ब्राह्मणों को आमंत्रित किया मगर वशिष्ठ ऋषि और उनके सौ पुत्र यज्ञ में सम्मिलित नहीं हुएइस पर विश्वामित्र ने उनको शाप दिया कि तुम शूद्रत्व को प्राप्त हो जाओउनके शाप से वशिष्ट ऋषि की संतान मेघ आदि सौ पुत्र शूद्रत्व को प्राप्त हो गए.
इस पुस्तक के लेखक का निष्कर्ष है कि इन्हीं दोनों वर्णों (ब्राह्मणक्षत्रियसे बहुत-सी जातियाँ निकलीं और बहुत-सी जातियाँ अपने कर्मानुसार इनमें मिलींउन्होंने इस जाति की प्रामाणिकता के लिए कुछ पौराणिक प्रमाण दिए जो इस तरह हैं.
मत्स्य पुराणअध्याय 24, श्लोक 49, पृष्ठ संख्या 74 में नहुष के धार्मिक सात पुत्र बतलाए हैंयतीययातिसंयातिउद्भवयाचिसर्य्याति और सातवाँ ‘मेघ’ जाति है.
इसी पुराण के अध्याय 5, श्लोक 27, पृष्ठ 18 में कश्यप की धनु नामक स्त्री से सौ पुत्रों में एक मेघवान बतलाया गया है.
अब इस जाति के विषय में कुछ ऐतिहासिक प्रमाण दिए जा रहे हैं:
मारवाड़ मर्दुमशुमारी रिपोर्ट 1891 भाग में लिखा है कि, ‘परमेश्वर’ ने अपने बदन के मैल से एक पुतला बनाया और उसको जिंदा करके ‘मेघचंद’ नाम रखाउसके चार बेटे हुएराँगीजोगाचंड और आदराजोगा (जोगचन्द्र), अदरा (आदि रिख).
आगे यह भी लिखा है कि “बाजे मेघ वालों ने यों भी लिखाया कि मेघ चंद असल में ब्राह्मण था और मेघ ऋषि कहलाता थाउसकी औलाद मेघवाल है.”
इसी ग्रंथ के पृष्ठ 535 में गरुड़ जाति का इतिहास लिखा है जिसमें लिखा है कि ब्रह्मा जी के दो बेटे थेमेघ ऋषि और गर्ग ऋषिमेघ ऋषि के मेघवाल और गर्ग ऋषि के गारुड़ हुए.
संत राम कृत पुस्तक 'हमारा समाज' (जनवरी 1949 .) के पृष्ठ संख्या 112, पंक्ति 14 में लिखा है कि मेघों के पूर्वज ब्राह्मण थे.
"बम्बई कास्ट एंड ट्राईब्ज़नाम के अंग्रेजी ग्रंथ के मराठी अनुवाद (सन् 1928 .) के पृष्ठ संख्या 240 में मेघवाल जाति का वृत्तान्त है और उसमें से जाति के जन्मदाता का नाम मेघ ऋषि लिखा है और रिखिया-राखिया नाम से कहलाना भी लिखा हैजो ऋषि शब्द का अपभ्रंश है.
सर इबर्टसन कृत जनगणना रिपोर्ट पंजाब सन् 1881 में जातियों का जो वृत्तान्त छपा है वह पुनः सन् 1916 ईस्वी में पंजाब सरकार द्वारा “कास्ट एंड ट्राईब्ज़ ऑफ पंजाब” नाम से प्रकाशित हुई हैउसमें मेघ जाति के लिए लिखा है कि ये लोग जम्मू की पहाड़ियों में पाए जाते हैंकपड़ा बुनने का कार्य करते हैं.
मौज मंदिर जयपुर से मिती भादवा सुदी शनिवार संवत् 1991 विक्रमी को इस जाति की व्यवस्था के लिए एक स्टाम्प पर वहाँ के पंडितों ने जो लिख कर दिया था उसमें यह भी था कि इस प्रांत में जो जाति बलाई नाम से प्रसिद्ध है वह अस्पृश्य शूद्र जाति है.
इस प्रांत में यह जाति चमार (शूद्रआदि अस्पृश्य जातियों की अपेक्षा कुछ अच्छी समझी जाती है. ‘मेघ’ व ‘मेद’ नाम की अस्पृश्य जाति के अवांतर भेदों से यह जाति है ऐसा माना जाता है.
मेघ वंश इतिहास ग्रंथ में यह भी लिखा है कि वैदिक काल में वस्त्र बुनने वालों की बड़ी प्रतिष्ठा थीउनका बड़ा सत्कार करते थे और उनके बुने हुए वस्त्र को धारण कर अपने को आयुष्मान मानते थे.
यजुर्वेद 27/80 में
सीसेन तन्त्र मनसा मनीषिणा
उषी सूत्रेण कवयो बयति ॥ 27/80
तथा फिर अथर्व वेद 24/1/15 में और फिर ऋग्वेद के तन्तु तनवान उत्रम मनु प्रवर्त आशत ॥ 9/22/7
तथा ऋग्वेद 10/53/6 और फिर अथर्व वेद के
नाह तन्तु नविजाताभ्येंतु नयं वयंसमरऽतमान्।
वास्या स्वित्पुत्र इहव कत्वानि बदात्य वरेण पिता ॥ 6/9/2
आदि अनेक उदाहरणों द्वारा सिद्ध किया गया है कि वस्त्र वयन कार्य अतिप्राचीन है और तत्त्वदर्शी ऋषियों ने सोच समझकर इसका आविष्कार किया था.
यह पहले बतलाया जा चुका है कि वैदिक काल में समस्त ऋषि लोग यह वस्त्र बुनने का कार्य करते थेमातंग ऋषिमेघ ऋषिलोमश ऋषिजोग चंदआदरारागीपारीकवशिष्टमहचंदअत्रिअंगिरा आदि ऋषियों ने सर्वप्रथम वस्त्र का आविष्कार किया.
इसमें यह सिद्ध करने की कोशिश है कि मेघ ब्राह्मण हैंऊँची जाति के हैंकपड़ा बुनना अच्छा काम हैवेदों के समय से चलता आ रहा है.
जाति कोषनामक पुस्तक इस समय भी साधु आश्रम होशियारपुरपंजाब की लायब्रेरी में विद्यमान है इसके पृष्ठ 77 पर लिखा है कि “इनका पूर्वज ब्राह्मण की संतान था”वह काशी में रहा करता था उसके दो पुत्र थे एक विद्वान और दूसरा अनपढ़पिता ने विद्वान पुत्र को पढ़ाने के लिए कहापर उसने पढ़ाने से इंकार कर दिया.
इस पर विद्वान पुत्र को अलग कर दिया गयाउसकी संतान मेघ हैंलेकिन साथ ही इस उपरोक्त तर्क का खुद ही खंडन कर दिया गया है.
मेघ जाति के विषय में एक और भी कथा सुनाई जाती हैपहले इन राजाओं के पास जम्मू रियासत ही थीयह कश्मीर का इलाका बाद में उन्होंने खरीदा थाजम्मू के प्रथम राजा के विषय में सुना जाता है कि उसके अंगरक्षक बड़े बहादुर नौजवान थेजब भी राजा को उनकी सेवा की आवश्यकता होती आदेश मिलने पर वे एकदम रक्षा करते थे और जिन आदमियों से खतरा होता उसको झटपट पकड़ लेते थेसजा देते थेउनसे उधर के लोग बहुत डरा करते थे और उनको कहा करते थे कि ये मेघ हैं मेघजिस तरह आकाश से ऊँचे पहाड़ों की तरफ़ से अकस्मात मेघ बरसने शुरू हो जाते हैंऊपर छाए रहते हैंइसी तरह ये अंगरक्षक भी अकस्मात बरसने लगते हैंअपराधी को पकड़ लेते हैंक्योंकि वे लोग भी ऊँचे पहाड़ों पर रहने वाले थेवहाँ की स्थिति के अनुसार और संस्कारों की वजह से उन अंगरक्षकों को मेघ जाति का कहते थेउसके बाद उन अंगरक्षकों की जो संतान हुई वे भी बहादुरी का संस्कार प्रचलित रखने के लिए मेघ कहलाएये जातियाँ और उपजातियाँ इसी तरह बनी.
जम्मू की तरफ़ से हमारा ब्राह्मण पुरोहित हर साल आता था और एक मुसलमान मिरासी भी आया करता थावह हमारी वंशावली पढ़कर सुनाया करता था और आखिर में हमारी जाति को सूर्यवंश से मिलाता थाहम मेघ जाति के लोग सूर्यवंशी हैं.
एक जगह लिखा है कि एक ब्राह्मण जम्मू में आया थाजिसने यज्ञ किया और गौ बलि दी मगर वो गाय को जीवित न कर सकाइसलिए उन ब्राह्मणों ने उसका तिरस्कार किया और उसी की संतान मेघ कहलाई.
साक्षात्कारों से यह पता चला है कि सभी मेघ लोग अपने को ब्राह्मणों के साथ जोड़ने की चेष्टा करते हैं लेकिन साथ में यह भी कहना नहीं भूलते कि वे शूद्र हैंयह विदित है कि मेघ अछूत थे और उन्हें अनुसूचित जातियों में शामिल कर लिया गया हैइनका भरपूर शोषण किया गया है.
भारत की पवित्र भूमि पर यवणों के पदार्पण और उनके स्वेच्छाचारी शासन के कारण हिन्दू समाज की सामाजिक अवस्था पूर्ण रूप से अस्तव्यस्त हो चुकी थीजातीय संगठनों में पारस्परिक विद्वेष की भावना फैल चुकी थीसर्वत्र आतंक का साम्राज्य छाया हुआ थाइतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि इस काल में किसी भी जाति की रक्त पवित्रता स्थिर नहीं रह सकीअनेक सवर्ण जातियों के लोग अपनी धार्मिक कट्टरता के कारण विदेशियों द्वारा हुए अत्याचारों को सहन न करने के कारण अपने से हीन दूसरी जातियों में विलीन हो गएजिसके कारण हिन्दू समाज में अनेक नई जातियों का प्रादुर्भाव हुआ और अनेक प्राचीन जातियाँ अपने असली स्वरूप को कायम नहीं रख सकींउनके रीति-रिवाजधार्मिक विश्वासखान-पान और कार्यों में आमूल परिवर्तन हो गएपरंपरागत हिन्दू सनातन धर्म की जड़ें ढीली पड़ गईं और उनकी जगह अनेक धार्मिक अंधविश्वासों पर आधारित मत-मतान्तरों ने ले लीअनेक विद्वानों का मत है कि यदि उस समय हिन्दू-समाज में इन नए-नए विश्वासों का उदय नहीं होता तो सम्पूर्ण हिन्दू-समाज का ह्रास हो जाता और वह अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सकता थाकिसी हद तक इस मत से सहमत हुआ जा सकता हैकिन्तु इस कारण हिन्दू समाज में जो अनेक बुराइयाँ घर कर गईं वे कम विचारणीय नहीं हैंसमय के प्रवाह ने इस समाज को जिसके संबंध में हम लिख रहे हैं अछूता नहीं छोड़ाइस जाति से अनेक शाखाएँ निकलकर भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न नामों से फैल गईंइसकी आजीविका के साधन भी परिस्थिति और कालभेद के कारण एक दूसरे से भिन्न हो गएअलग-अलग टुकड़ों में बैठ जाने के कारण और अनेक दूसरी जातियों के समावेश के कारण इनका सामाजिक स्तर कायम नहीं रह सकाजहाँ रीति-रिवाज़ों की असमानता पैदा हुईवहाँ अनेक सामाजिक कुरीतियों ने भी घर कर लियाफलस्वरूप हिंदू समाज में इस जाति का एक पददलित समाज-सा दर्जा बन गयाशिक्षा के अभाव के कारण किसी को भी इस ओर विचार करने का अवसर नहीं मिला. 18 वीं शताब्दी के अंत तक इस जाति की अत्यंत हीन अवस्था थी.
मेघ जाति के लोग जिन की इच्छाएँ और वासनाएँ इस कारण से दब गईं कि बड़ी-बड़ी उच्च और माननीय जातियों ने इनको दबाए रखाइनको उतना ही काम करने देते थे जिससे उनका कठिनता से रोटी-कपड़ा चल सकेयही कारण है मेघ जाति को भक्ति भावना की तरफ़ ले जाने का और भगत कहलाने का.
जिस प्रांत में यह मेघ जाति रहती थी वहाँ क्षत्रिय राजपूत राजाओं का राज्य थाउनके अधीन रहना तो स्वाभाविक है क्योंकि ये लोग उनके दास बनकर रहेइसी तरह जिन बड़े भूमिपतियों का वे खेती का काम करते थे वो भी उतना ही देते थे जिससे कठिनता से गुजारा चल सकता थादूसरी ओर अन्य जातियों के लोग भी इनसे घृणा करते थेइनके अंदर उनकी घृणा से प्रतिक्रिया पैदा नहीं होती थीउसे खुशी से सहन करते थेऔर यह जानकर कि हमें ईश्वर ने ऐसा बनाया हैसंतोष करते थेहाथ बाँध कर कहा करते कि महाराज जो आज्ञा.
मेघ जाति के लोगों के मन में दासता को गहरे तक बैठा दिया गया थालेखक का कहना है कि मैंने अपने अनुभव से मेघ जनजाति के लोगों की पीड़ित जिंदगी को देखा हैकई परिवार ऐसे थे जिनको तन ढाँपने के लिए कपड़ा नहीं मिलता थाफटे-पुराने कपड़ों में गुज़ारा करते थेवह भी एक धोती और चादरजब उनके घर खाना बनता था तो कोई सब्जी दाल नहीं होती थीसूखी तंदूर की रोटियाँ हुआ करती थींअगर घर के पाँच सदस्य हैं तो पाँच रोटियाँ बनाते थेएक-एक रोटी सबको देते थेअगर किसी की भूख रह जाए तो और तो है नहींमाताएँ अपने बच्चों को पहले कह देती थीं कि एक रोटी से अधिक नहीं मिलेगीअगर भूख रह जाए तो पानी से गुजारा करोगरीबी और उत्पीड़न से कुदरती तौर पर उनके अंदर ईश्वरभगवान कुछ और कह लोका सहारा आ जाता हैवह ईश्वर या भगवान का नाम लें या न लें.
यह दलित वर्ग सामंतशाही व जागीरदारी प्रथाओं के अंतर्गत निस्सहाय थाइनसे अनुचित बर्ताव किया जाता थाजब इसके विरुद्ध कुछ लोगों ने प्रबल आंदोलन खड़ा किया तो आरंभ में तो इस आंदोलन में भयभीत ग्रामीण जनता में से बहुत कम लोगों ने इनका सहयोग दियाजिन मुट्ठी भर लोगों ने इस आंदोलन में अग्रणीय बनकर सहयोग दिया उन पर नाना प्रकार के अत्याचार हुएकुओं से पानी भरनाजंगल से लकड़ी लानाचरागाहों में उनके पशुओं का चरना निषिद्ध कर दिया गयाशनैः शनैः ज्यों-ज्यों लोगों में साहस बढ़ता गया वे इन कष्टों का संगठित रूप से प्रतिरोध करने लगेयह क्रम वर्षों चलता रहा.
गांवों का यह हाल था कि दलित वर्ग के स्त्री-पुरुषों को सोने-चाँदी के जेवर पहननासार्वजनिक भोजों में घी के पकवान बनाकर खानापात्र में जीमनाविवाह आदि में ढोल व बाजे बजाना आदि हिन्दू समाज की सामाजिक व्यवस्था के नाम पर वर्जित थे.
धीरे-धीरे जैसे-जैसे लोगों में चेतना बढ़ने लगी इसके विरुद्ध प्रबल प्रतिरोध व्याप्त होने लगालोगों ने अपने रहन-सहन के तरीके बदलना आरंभ कियाअनेक गांवों में प्रबल संघर्ष हुएयहाँ तक कि कई निरपराध व्यक्तियों को अपने प्राणों तक से हाथ धोना पडाअनेक गाँवों में फ़ौजदारी मुकदमे चले जिनमें अपार जन-धन की क्षति हुई.
साक्षात्कारों से यह बात भी सामने आई है कि इन लोगों का मंदिरों और धार्मिक स्थानों में जाने तथा गांवों में प्रवेश का निषेध थायहाँ तक कि वेदों आदि के मंत्र भी इनके कानों में पड़ने या सुनने आदि की पूर्ण मनाही थी.
सामाजिक तौर पर ये लोग अपने फ़ैसले स्वयं करते थेकबीले का सरदार होता थासभी को उसका कहना मानना पड़ता थाकहना न मानने वाले को बिरादरी से निष्कासित कर दिया जाता था.
मेघ लोगों का गरीब और अनपढ़ होने के कारण बहुत शोषण किया जाता रहा हैयह बात साक्षात्कारों में भी सामने आई है.
हमें ध्यान में रखना चाहिए कि कबीरपंथी होने से पहले जम्मू क्षेत्र में केंद्रित मेघ जनजाति के लोग अछूतों से भी दयनीय स्थिति में जीवन यापन करते रहे हैंइन्हें हिन्दू व मुसलमान दोनों धर्मों के लोग घृणा और तिरस्कार की दृष्टि से देखते थेइनका मंदिरमस्जिद में प्रवेश निषेध थाइन क्षेत्रों के सत्ताधारी राजपूत अथवा डोगरे इनके प्रति बड़े पाश्विक अत्याचार करते रहे हैंये सामन्ती शोषण का शिकार भी थेये बंधुवा रूप में ऊँची जातियों की सेवा में लगे हुए थे.
कुछ साक्षात्कारों से रोंगटे खड़े कर देने वाली सूचनाएँ प्राप्त हुई हैंजाति पहचान ‘मेघ’ एक अपमान का सूचक मानी जाती थीइन कबीरपंथी मेघों का शोषण जम्मू में राजपूत लोगों ने किया हैइन्होंने इनके स्थानों परजो पुराना जम्मू हैज़बरदस्ती कब्जा कर लियाकुछ को भगा दिया गयाकुछ को मार दिया गयाकुछ को जिंदा ही जला दिया गयाराजपूत लोगों ने सामाजिक तौर पर इनका बहुत शोषण कियाऔरतों का शारीरिक शोषणयौन शोषणआम बात थीऔरतों के शोषण की सीमा यह थी कि विवाह की पहली रात राजपूतों के पास रहना पड़ता था नहीं तो ज़बरदस्ती उठा लिया जाता थाइन्हें रोकने वाला कोई नहीं थाइन लोगों को शादी-विवाह भी चुपके से ही करने पड़ते थे.
जिसकी बहु-बेटी सुन्दर होती थी राजपूत उसे ज़बरदस्ती रखैल बना लेते थेयह भी पता चला है कि जब लड़की छोटी होती थी उसकी नाक में नथनी डाल दी जाती थीजो पहले नथनी डाल देता वह उसकी पक्की रखैल बन जाती थीवह जब चाहे उससे मिल सकता थावह शादी के बाद भी उससे मिलता रहता था.
जम्मू में ‘कारे बेगार’ कानून लागू थाजो भी राजपूत चाहे इन लोगों से बेगार करवा सकता थाये कानूनी तौर पर मना नहीं कर सकते थेयदि कोई मना करता था तो उसे पीटा जाता थायहाँ तक कि उसे पुलिस थाने ले जाकर कोड़े लगवाए जाते थेउन्हें रू.50/- (पचास रुपएजुर्माना किया जाता थाये तो पहले ही गरीब थे रकम तो इनके पास होती नहीं थी इसलिए इन्हें मार खानी पड़ती थी.
एक साक्षात्कार में यह भी पता चला कि राजपूत लोग इनके घर आकर कहते कि लड़को चलोहमारे पशु भूखे हैं उन्हें चारा डालो.
एक साक्षात्कार में यह भी पता चला कि एक बार एक राजपूत किसी के घर सुबह चार बजे चला गयाउस समय वे लोग हल चलाने के लिए तैयार हो रहे थेउनके घर में उनकी स्त्री/माँ थीउसे राजपूत ने शारीरिक संबंध स्थापित करने को कहालेकिन उसने कहा कि इनको घर से जा लेने दोलेकिन वह नहीं मानाइससे गुस्से में आकर उसके लड़कों ने उन्हें पीट दियाजब उस राजपूत ने दूसरे राजपूतों को बताया तो उन्होंने कहा कि इनकी यह मजालइनको एक-एक करके मारते रहोफिर उन्होंने उनके दो बड़े लड़कों को मार दियाफिर यह परिवार जानें बचाकर रात के अंधेरे में स्यालकोट भाग गयामुझे इस परिवार को मिलने का मौका मिला हैयदि लोग यह पूछते कि क्या हुआ ये कहते थे कि उन्हें किसी क्रोधित साधु ने शाप दे दिया हैइसलिए इनके परिवार के सदस्य एक-एक करके मरते जा रहे हैं और ये उस शाप से बचने के लिए सभी कुछ छोड़कर भाग निकले हैं.
इसी तरह यह भी पता चला है कि जब गर्मियों में सचिवालय श्रीनगर तब्दील होता था तो इन्हें बगैर कोई पैसा दिए श्रम का काम लिया जाता था.
राजपूत लोग मुसलमानों के साथ कुएँ से पानी पी लेते थे लेकिन इन लोगों को पास में फटकने भी नहीं देते थेबहुत से मेघ मुसलमान हो गएकहा जाता है कि उस समय मुसलमान कहते थे कि जो मेघ मुसलमान हो जाएगा उसे लड़की व 25 किले जमीन दी जाएगीइसलिए बहुत मेघ मुसलमान हो गए.
इन लोगों को स्कूल में पढ़ने नहीं दिया जाता थायदि कोई पढ़ना चाहता था उसका स्कूल में दाखिला वर्जित थाजब ये लोग बाजार में जाते थे तो इन्हें पाड़छे से दूर से ही पानी पिलाया जाता थाइनकी छाया नहीं पड़ने दी जाती थीयदि कोई साथ छू जाता था तो स्नान करते थेराजपूतों को लोग 'गरीब नवाज़कहकर झुक कर सलाम करते थेजो राजपूतों को सलाम नहीं करता था उसे किसी भी समय भारी नुकसान उठाना पड़ सकता था.
इन लोगों को मेघ होने के कारण फ़ौज में या अन्य कोई नौकरी नहीं मिलती थीइन्हें विवाह शादी पर घोड़ी पर बैठना मना थाये सिर को तेल नहीं लगा सकते थेयदि कोई सिर को तेल लगा लेता था तो उसके सिर में मिट्टी डाल दी जाती थीइन लोगों को पगड़ी बाँधने का हक भी नहीं थाऔर तो और वे इन लोगों को अपने बच्चों का अपनी मनपसंद का अच्छा नाम तक नहीं रहने देते थे.
एक साक्षात्कार से यह भी पता चला है कि इनसे काम तो बहुत कराया जाता था लेकिन बदले में रोटी अचार के साथ ही दी जाती थी जोकि दूर से ही फेंकी जाती थीकई बार अचार नीचे भी गिर जाता थामगर फिर उसको ही झाड़ कर खाना पड़ता था.
एक साक्षात्कार से यह भी पता चला कि जो धनाढ्य मुसलमान होते थे वे अपनी बेटी की शादी में काम करने के लिए दो मेघ भेज देते थेपीछे से उनके परिवार को गुजर-बसर करने के लिए कुछ पैसे देते रहते थेकहा जाता है कि विवाह वाली लड़की उतना नहीं रोती थी जितना कि ये मेघये मृत्यु तक उनके वफ़ादार बनकर काम करते रहते थे.
चाहे इन लोगों ने बड़ी मेहनत से जमीनें बनाई थीं लेकिन इन्हें कानूनी तौर पर ज़मीन रखने का अधिकार नहीं थाये सिर्फ़ खेत-मजदूरी ही कर सकते थे.
जब किसी मेघ की मृत्यु हो जाती थी तो इनके श्मशान घाट भी अलग ही होते थेइन्हें गाँव में और घरों में जाने की मनाही थी.
प्राचीन काल से ही हिन्दू समाज की सामाजिक रचना का ढाँचा भेद-भावपूर्ण नीति का आश्रय लेकर निर्मित किया गया हैजिसमें अद्विजों को जिन्हें आजकल दलित जातियों के नाम से पुकारा जाता है पढ़ना-पढ़ाना वर्जित किया गया हैबल्कि धार्मिक स्थानों पर जहाँ कहीं वेदादि धार्मिक ग्रंथों का पाठ हो रहा होउस तक को सुनना धर्म विरुद्ध ठहरा दिया गयाइस तरह इन जातियों का जिनमें मेघ भी शामिल थे शैक्षणिक तौर पर बहुत शोषण किया गया है.
इन लोगों को पाठशालाओंमंदिरों तक में जाना मना थाब्राह्मण तो पास फटकने ही नहीं देते थेइस तरह पढ़ाई-लिखाई का नाम ही नहीं थायदि कोई पढ़ने की लालसा रखता था तो यह धनी वर्ग के लोग तुरंत उसके माता-पिता को उसे ऐसा करने से रोकने का निर्देश देते थे.
इस तरह से हम देखते हैं कि इन लोगों का बहुत ही ज़्यादा शोषण हुआ हैयदि कोई इसके विरुद्ध आवाज उठाता था तो उन्हें इसके भीषण परिणाम भुगतने पड़ते थेइन्हें औने-पौने बहाने बनाकर तरह-तरह की यातनाएँ दी जाती थींयहाँ तक कि उन्हें मार भी दिया जाता था.
इस तरह के भीषण सामन्ती शोषणों से दुखी होकर कर कुछ युवा और बहादुर लोग जम्मू से पलायन करने की सोचने लगेजम्मू के साथ ही सटा हुआ राज्य था पंजाब जिसमें स्यालकोटगुरदासपुर तथा कुछ हिमाचल का हिस्सा थाये लोग जब स्यालकोट में गए तो सीमा पार करने पर वहाँ अँगरेज का राज्य थावहाँ पर बँधुआ मज़दूरी नाम मात्र ही थीलोगों को खेती व उद्योग धंधों में रोजगार आम मिलने लगा थाजिससे इन लोगों में कुछ ने तो पूरे परिवार सहित तथा कुछ ने परिवार के कुछ सदस्यों सहित वहाँ से पलायन कियाये लोग स्यालकोट से ही मलखावालीसरगोधा आदि इलाकों में फैल गएदूसरी ओर जम्मू के साथ पठानकोट लगता थापठानकोट से होते हुए कांगड़ा व हिमाचल के अन्य भागों में ये लोग पहुँचे हैंये बातें साक्षात्कारों से सामने आई हैं.
प्रान्तीय भेद और जातीय उपभेदों के कारण जिस परिस्थिति और कालवश जहाँ जैसी जीविका के साधन उपलब्ध हुए उन्होंने वैसे ही अपना लिएये लोग मजदूरी करके अपना निर्वाह करते थेलेकिन बाद में उन्हें पूरी दिनचर्या मजदूरी दिए बगैर काम लिया जाने लगासरकारी अधिकारियों और सामन्ती वर्ग के लोगों के शिकार आदि जैसे मन बहलाव के दौरों आदि के अवसरों पर जबरन कार्य लिया जाना एक आम तरीका बन गयाइन दूषित सामाजिक प्रवृत्तियों के कारण इनका बहुत अधिक आर्थिक शोषण किया गयाअधिकांश लोगों का गाँव में सामूहिक निर्वाह कठिन हो गया और परिवार के परिवार तंग आकर गाँव से निकलकर शहरों में जीविका के साधनों की खोज को निकल पड़ेयही कारण है कि इस समाज के लोग न केवल भारत के दूर-दूर के शहरों में ही फैले हैं बल्कि पड़ोसी देशों तक में जाकर आबाद हुए हैं.
भूमि पर कुछ विशेष वर्गों के लोगों का एकाधिकार होने व भूमि का उचित वितरण न होने के कारण इस जाति के अधिकांश लोग काश्तकारी में पर्याप्त अनुभव रखते हुए भी आजतक भूमिविहीन ही हैंखेतीहर मजदूरों में पर्याप्त मुआवज़े के अभाव में इनका आर्थिक स्तर ऊँचा नहीं उठ सका है.
आर्य समाज और कबीर पंथ

19 वीं शताब्दी में धार्मिक तथा समाज सुधारक आंदोलनों में आर्यसमाज निःसन्देह सबसे महत्वपूर्ण थाब्रह्मो समाज का पूर्वी भारत में उद्भव हुआ थाआर्य समाज का पश्चिमी भारत मेंआर्यसमाज के प्रवर्तक एवं महान प्रचारक स्वामी दयानंद सरस्वती थे.
स्वामी दयानंद का प्रारंभिक नाम मूलशंकर थाइनका जन्म 1824 ईस्वी में गुजरात काठियावाड़ में स्थित मोखी (रियासतके स्थान पर हुआआप उच्च घराने के ब्राह्मण थे व शिवभक्त थेलेकिन आप 14 वर्ष की आयु में ही मूर्तिपूजा के विरुद्ध हो गए तथा पिता जी से आपके मतभेद हो गएआपने विवाह नहीं करायाविवाह के कुछ दिन पहले घर से भाग कर साधु बन गए.
आपने मथुरा के एक नेत्रहीन ब्राह्मणस्वामी बिरजानंद को अपना गुरु बनायावहाँ से ही वैदिक साहित्य का ज्ञान प्राप्त किया.
उपदेशक तथा आर्यसमाज के संस्थापक के रूप में:- 1863-83 ईस्वी तक दयानन्द ने बड़े उत्साहसाहस एवं परिश्रम सहित अपने उपदेशों का प्रचार कियाउन्होंने मूर्तिपूजा तथा रीति-रिवाज़ों का खंडन किया और वैदिकधर्म का प्रचार किया. 1874 में उन्होंने 'सत्यार्थप्रकाशनामक पुस्तक की रचना की जिसमें उन्होंने उपदेशों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया.
स्वामी जी ने 1875 ईस्वी में बम्बई (मुंबईमें प्रथम आर्यसमाज की स्थापना कीदो वर्ष पश्चात 1877 ईस्वी में लाहौर में आर्यसमाज की स्थापना कीयह आर्य समाज का मुख्य केंद्र बन गयालाहौर में ही आर्यसमाज को अंतिम रूप दिया गया तथा इसके सिद्धांतों का पुनर्निर्माण किया गयाइसके बाद भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों पर आर्यसमाज खोले गएस्वामीजी को सबसे अधिक सफलता पंजाबउत्तर प्रदेशराजस्थान तथा गुजरात में प्राप्त हुई. 30 अक्तूबर, 1883 ईस्वी को उनका अजमेर में देहांत हो गया.
आर्यसमाज के उद्देश्य तथा सिद्धांत :-
स्वामी दयानंद द्वारा स्थापित किए गए आर्यसमाज का उद्देश्य हिंदूधर्म में प्रचलित झूठे रीति-रिवाजों का खंडन करना तथा वैदिकधर्म का प्रचार करना था.
10 नियमस्वामी जी ने आर्यसमाज के अनुयायियों के लिए वेदों पर आधारित 10 नियम बनाए जो उनके उपदेशों का सार है-
1. ईश्वर समस्त सच्चे ज्ञान का स्रोत है.
2. ईश्वर ही सारे ज्ञान तथा समस्त सच्चाई का प्रतीक हैकेवल ईश्वर ही पूजा के योग्य है.
3. वेद सच्चे ज्ञान का भंडार हैं तथा वेदों के मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए.
4. सच्चाई को अपनाना तथा झूठ को त्यागना चाहिए.
5. सोच-समझ कर शुभ काम करने चाहिएँबुरे तथा अनुचित कार्यों से दूर रहना चाहिए.
6. संसार के सभी लोगों की शारीरिकआध्यात्मिक तथा सामाजिक दशा सुधारने के यत्न करने चाहिएँ.
7. सभी लोगों के साथ प्रेम तथा सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए.
8. अज्ञानता दूर होनी चाहिए तथा ज्ञान का प्रसार होना चाहिए.
9. समाज की भलाई में ही अपनी भलाई समझनी चाहिए.
10. प्रत्येक व्यक्ति को निजी स्वतंत्रता होनी चाहिएपरन्तु उसे दूसरों की भलाई के मार्ग में अड़चन नहीं बनना चाहिए.
पाँच महायज्ञ:- आर्यसमाज के सदस्यों को पाँच महायज्ञों की पालना करने को कहा गया.
1. ब्रह्म यज्ञ :- प्रातः तथा सायं काल दोनों समय संध्या करना तथा मंत्रोच्चार करना.
2. देव यज्ञ :- अग्नि में घी आदि डालकर हवन करना.
3. पितृ यज्ञ :- माता-पिता की सेवा करना.
4. अतिथि यज्ञ :- संत-महात्माओं को भोजन खिलाना.
5. बलिवैश्वदेव यज्ञ :- निर्धन तथा दुखी लोगों की सहायता करना तथा पशुओं की रक्षा करना.
-वेदों में विश्वास करने को कहा.
-देवी-देवताओं तथा मूर्तिपूजा में अविश्वास को कहा.
-जातिप्रथा में अविश्वास किया.
-अस्पृश्यता का खंडन किया.
-पुरुषों तथा स्त्रियों में समानता का प्रचार किया.
-विधवा विवाह को ठीक कहा.
स्वामी दयानंद के पश्चात आर्यसमाज की गतिविधियाँ एवं उपलब्धियाँ :-
स्वामी दयानंद के पश्चात भारत के विभिन्न भागों में आर्यसमाज ने धार्मिकसामाजिक तथा शिक्षा के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किएजो संक्षेप में इस प्रकार हैं :-
धार्मिक क्षेत्र में :- भारत में भिन्न-भिन्न आर्यसमाजों में स्वामी दयानंद के उपदेशों का प्रचार होता रहाबहुत अधिक संख्या में लोग आर्यसमाज में शामिल हुएउन्होंने मूर्तिपूजा और झूठे रीति-रिवाज़ों की पालना करनी छोड़ दी तथा वे आर्यसमाज के नियमों के अनुसार चलने लगेइस प्रकार भारत के बहुत बड़े भाग में वैदिकधर्म प्रचलित हो गया.
आर्यसमाज के प्रयत्नों के फलस्वरूप हिन्दूधर्म की इस्लाम तथा ईसाईधर्म के खतरों से रक्षा हुईइससे पहले बहुत से हिन्दू विशेषकर निम्नजातियों के हिन्दू अपने धर्म को छोड़ कर इस्लाम तथा ईसाईधर्म को ग्रहण करने लगे थेस्वामी दयानंद ने छूत-छात का ज़ोरदार शब्दों में खंडन किया तथा शूद्रों को अन्य जातियों के समान धार्मिक एवं सामाजिक अधिकार दिएउनके पश्चात भी आर्यसमाज के प्रयत्नों के फलस्वरूप अछूतों के साथ हिंदू समाज में अच्छा सलूक किया जाने लगाइस प्रकार आर्यसमाज ने हिन्दुओं में इस्लाम तथा ईसाईधर्म अपनाने के प्रवाह को रोकानिम्न जातियों के लोगों को हिन्दूधर्म में लाने के लिए स्वामी श्रद्धानंद ने शुद्धि अर्थात पुनः धर्म परिवर्तन आंदोलन चलायाआर्यसमाज ने गौ-रक्षा आंदोलन भी चलायाइसमें तनिक भी संदेह नहीं कि आर्यसमाज ने धर्म की रक्षा के लिए सराहनीय कार्य किएपरंतु इसका एक बुरा परिणाम यह निकला कि हिन्दुओं तथा मुसलमानों में आपसी शत्रुता आगे से बढ़ गई और कई स्थानों पर समय-समय पर हिंदुओं तथा मुसलमानों में दंगे फसाद भी हुए.

सामाजिक क्षेत्र :- आर्य समाज ने सामाजिक क्षेत्र में अनेक प्रशंसनीय कार्य किएपहलाइसने लड़कों तथा लड़कियों को बहुत छोटी आयु में विवाह करने से रोका और विधवाओं की अवस्था को सुधारने के प्रयत्न किएदूसराइसने हरिजनों के उद्धार की ओर विशेष ध्यान दियाइसने न केवल छूत-छात को समाप्त करने के लिए प्रयत्न किए अपितु पिछड़ी हुई जातियों के नैतिक तथा आर्थिक सुधार के लिए भी कार्य किएइसने उनमें अनपढ़ता दूर करने के लिए तथा उनके स्तर को ऊँचा उठाने के लिए बहुत-से स्कूल एवं समाज सेवा केंद्र खोलेइस प्रकार आर्यसमाज ने हरिजन सुधार का काम आरंभ कियातीसराआर्यसमाज ने भारत के भिन्न-भिन्न भागों में अनाथ लड़कों तथा लड़कियों के लिए अनाथालय खोलेपहला अनाथालय स्वामी दयानंद के समय में फ़िरोज़पुर में खोला गया से जहाँ स्कूल तथा दस्तकारी की शिक्षा का भी प्रबंध किया गयाइसके पश्चात धीरे-धीरे उत्तरी भारत के बहुत-से नगरों में ऐसे अनाथालय स्थापित किए गए. 1896 से 1897 ईस्वी तथा 1899 से 2000 ईस्वी के अकालों के समय आर्यसमाज ने अकाल पीड़ित लोगों की बहुत सहायता कीइस अकाल के कारण अनाथ हुए हजारों बच्चों के लिए अनाथालय खोले गए तथा उनको ईसाई धर्म अपनाने से बचाया गयाइसी प्रकार भारत के भिन्न-भिन्न भागों में प्लेग तथा घातक बीमारियाँ फैलने के समय भी आर्यसमाज ने लोगों की औषधियाँ तथा अन्य आवश्यक चीजों से सहायता की तथा मृतक शरीरों को जलाने का उचित प्रबंध किया. 1904 में कांगड़ा के भयानक भूकम्प के समय भी आर्यसमाज ने दुखी लोगों की बहुत सहायता की.
शिक्षा के क्षेत्र में :- आर्यसमाज के मुख्य उद्देश्यों में से एक उद्देश्य भारत में विद्या का प्रचार तथा प्रसार करना थाइसके लिए आर्यसमाज ने भारत के भिन्न-भिन्न भागों विशेष रूप से पंजाब तथा उत्तरप्रदेश में बहुत से स्कूलोंकालेजों तथा गुरुकुलों की स्थापना कीजून, 1986 ईस्वी में लाहौर में स्वामी दयानंद की स्मृति में प्रथम स्कूल खोला गयाजिसका नाम दयानंद एंग्लो-वैदिक स्कूल रखा गयातीन वर्ष पश्चात जून 1889 में स्कूल के साथ ही दयानन्द एंग्लो-वैदिक कालेज भी खोल दिया गयायह प्रस्ताव पास किया गया कि इस कालेज का उद्देश्य हिंदू साहित्यसंस्कृत तथा वेदों की शिक्षा के साथ ही अंग्रेज़ी साहित्य तथा पश्चिमी विज्ञान की शिक्षा देना होगाबाद में जालंधरहोशियारपुरकानपुरलुधियाना आदि नगरों में ऐसे डी..वीस्कूल तथा प्राइमरी स्कूलों की स्थापना की गई.
स्कूलों तथा कालेजों के अतिरिक्त कुछ गुरुकुल स्थापित किए गएपहला गुरुकुल लाला मुंशीराम जो बाद में स्वामी श्रद्धाराम के नाम से प्रसिद्ध हुएने हरिद्वार के समीप कांगड़ी में खोलाबाद में कई अन्य गुरुकुल भी स्थापित किए गए.
1984-85 की कमेटी की रपट के अनुसार डी..वीकॉलेज प्रबंधन कमेटीनई दिल्ली के अधीन लगभग 200 शिक्षा संस्थाएँ हो गई थींइनमें से 36 आर्ट्स एवं साईंस कॉलेज, 79 हाई एवं हायर सेकेंडरी स्कूल, 100 पब्लिक मॉडल स्कूल, 27 प्राइमरी तथा शेष व्यावसायिक संस्थाएँ थीं.
आर्यसमाज तथा राजनीति :- आर्यसमाज अवश्य ही धार्मिक तथा समाज सुधारक संस्था थीस्वामी दयानंद ने स्पष्ट रूप में ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध आवाज नहीं उठाई थीलेकिन उनके बाद के प्रतिनिधियों जैसे लाला लाजपत राय आदि के राजनीतिक विचारों को सभी जानते हैंइनके पश्चात् 1919 के बाद तो स्वामी श्रद्धानंद जैसे आर्यसमाज के प्रमुख नेताओं ने भी स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गाँधी का साथ दियावैसे भी आर्यसमाज ईसाई व मुस्लिम धर्म के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में काफ़ी समय से काम कर रहा थादलितों को जो अपने को हिन्दू या मुसलमान नहीं कहते थे उन्हें मुसलमान या ईसाई होने से रोकने के लिए काम कर रहा था.
कुछ भी हो ब्रिटिश सरकार आर्यसमाज को संदेह की दृष्टि से देखती थीआर्यसमाज के विरोधी मुस्लिम नेताओं ने इसे अंग्रेज़ शासकों की दृष्टि में अपमानित करने के लिए इसे सरकार विरुद्ध राजनीतिक आंदोलन बतायासरकार ने कई आर्यसमाजी नेताओं के साथ बहुत कठोर व्यवहार किया तथा उनमें से कइयों को सरकारी पदों से हटा दियायद्यपि आर्यसमाज एक राजनीतिक संस्था नहीं थी तथापि स्वामी दयानंद ने उन्हें ‘पुनः वेदों की ओर’ तथा ‘भारत भारतीयों के लिए’ आदि नारों से भारतीय लोगों को राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के लिए तैयार कियासारे आर्यसमाजी अपने कार्यों में खुले रूप से देश भक्त थेइसमें तनिक भी संदेह नहीं कि आर्यसमाज आंदोलन ने भारत में राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

आर्यसमाज में फूट

1892 में आर्य समाज के दो गुट हो गएइस फूट के दो मुख्य कारण थेपहलालाहौर के बहुत से आर्यसमाजियों का यह विचार था कि दयानंद एंग्लो-वैदिक कालेज में वेदों के साथ अंग्रेज़ी साहित्य तथा पश्चिमी विज्ञान की शिक्षा न दी जाएपरंतु लाला मुंशीराम इस विचार से सहमत न थे तथा वे चाहते थे कि इस कॉलेज में शुद्ध वैदिक साहित्य की शिक्षा दी जानी चाहिएदूसरालाला मुंशीराम आर्यसमाजियों के लिए मांस खाने की मनाही करना चाहते थेपरंतु अन्य आर्यसमाजी भोजन पर ऐसा प्रतिबंध लगाने के पक्ष में नहीं थेपरिणाम स्वरूप लाला मुंशीराम और उनके साथी अन्य आर्यसमाजियों से पृथक हो गएइस प्रकार आर्यसमाज में दो गुट कायम हो गएलाला मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानंदके गुट को महात्मा पार्टी अथवा गुरुकुल पार्टी कहा जाने लगा क्योंकि उन्होंने डी..वीकालेज को छोड़ कर हरिद्वार से तीन मील दूर कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना कीदूसरे गुट जिसके मुख्य नेता लाला हंसराज तथा लाला लाजपत राय थे को कालेज पार्टी कहा जाने लगा.
आर्यसमाज का संगठन तथा विकास
संगठन :- जब आर्यसमाज का काफ़ी विकास हो गया तो इसके संगठन के बारे में निश्चित नियम बनाए गएप्रत्येक नगर अथवा कस्बे के आर्यसमाज के कार्यकारी सदस्यों को 10 नियमों की पालना करनी होती थीआर्यसमाज की प्रत्येक बैठक में अवश्य उपस्थित होना होता था तथा अपनी आय का सौवाँ भाग समाज को देना होता थाप्रत्येक आर्यसमाज के प्रबन्धन के लिए कार्यकारी कमेटी चुनी जाती थीजिसमें आगे सभापतिउप सभापतिसचिवअकाऊँटेंट तथा लाइब्रेरियन नियुक्त किए जाते थेउन सबको प्रत्येक वर्ष कार्यकारी सदस्यों के द्वारा चुना जाता थाप्रत्येक समाज का अपना मंदिर अथवा भवन होता थाजहाँ सप्ताह में एक बार समाज की बैठक होती थी.
प्रत्येक प्रांत में एक प्रान्तीय सभा होती थी जिसमें प्रांत के सभी नगरों के आर्यसमाजों के प्रतिनिधि होते थेप्रत्येक नगर का आर्यसमाज अपनी कुल आय का दसवां भाग प्रांतीय सभा को देता थाप्रांतीय सभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्येक तीन वर्ष के बाद किया जाता थापरंतु उसके कर्मचारी प्रत्येक वर्ष चुने जाते थेप्रांतीय सभा आर्यसमाजों के प्रबंधन संबंधी नियम बनाती थीसमाचार-पत्र जारी करती थीप्रांत के स्कूलों तथा कालेजों के प्रबन्धन की देखभाल करती थी तथा पुस्तकालयों आदि का प्रबंध करती थीप्रांतीय सभाओं के ऊपर अखिल भारतीय सभा थीजिसमें भिन्न-भिन्न प्रान्तीय सभाओं के सदस्य होते थे.
विकास :- आर्यसमाज ने अन्य सभी धर्मोंसमाज सुधार आन्दोलनों से बढ़ कर उन्नति की. 1883 में स्वामी दयानंद के देहांत के समय इसके सदस्यों की कुल संख्या 24000 थी जो 1891 में 40000 तथा 1911 में 243000 हो गई. 1911 के पश्चात उत्तरी भारत के प्रत्येक प्रांत में आर्यसमाजों की संख्या तथा उसके साथ-साथ सदस्यों की संख्या बढ़ती गईआज उत्तरी भारत के प्रत्येक राज्य में शायद ही कोई ऐसा नगर अथवा कस्बा होगा जहाँ कोई आर्यसमाज न होपंजाबउत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में तो इसने विशेष स्थान प्राप्त कर लिया है.
लेकिन देखने में आया है कि अब यह आंदोलन बहुत ही बिखर गया हैधीमा पड़ गया है तथा दलित जातियाँ इसे छोड़ गई हैंबहुत ही कम दलित सदस्य हैं और वह भी नाम के ही हैंउन्हें कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाताअब यह सिर्फ़ उच्च जातियों का संगठन रह गया हैलगता है कि यह अपने नियमों और रास्ते से भटक गया हैइसे सभी दलित जातियों के लोग बड़ी गिनती में छोड़ गए हैं और छोड़ रहे हैं.
महर्षि दयानंद सरस्वती जी द्वारा संचालित अछूतोद्धार व दलितोद्धार का कार्यक्रम एक आंदोलन का रूप ले चुका थाछोटी जातियों के लोग विशेषकर ओड़रहतियेमेहताडूमअछूतकाधियानीवशिष्ठचमारवाल्मीकि आदि की दशा बहुत ही दयनीय थीआर्यसमाज के अनगिनत कार्यकर्ता जैसे स्वामी श्रद्धानंदपंडित लेख रामपंडित गुरुदत्त विद्यार्थीलाला हंसराज के अलावा पंडित रामजदत्रमहाशय राजपालमहाशय रामचन्द्रलाला गंगाराम वकील आदि अनेक ही आर्यसमाज के महारथी शुद्धि के कार्यक्रम के अंतर्गत लोगों को आर्य बनाने में लग पड़ेक्योंकि पौराणिक हिन्दू जात-पात को जन्म के आधार पर मानता है जो कि गलत है इसलिए छोटी जाति के लोग हिन्दुओं से दूर जा रहे थेहिन्दुओं के दुर्व्यवहार से तंग आकर लोग मुसलमानईसाई बन रहे थेआर्यसमाज को यह अच्छा नहीं लगाआर्य विद्वानों ने यह सोचा कि यदि लोग हिन्दूधर्म से दूर हो गए तो समय पाकर हिन्दुओं का वजूद खतरे में पड़ जाएगाहिंदुत्व को बचाने के लिए आर्य विद्वान केवल उन लोगों को ही वापस लेकर नहीं आए बल्कि हजारों लाखों दलितों को भी शुद्ध करके आर्य बनाया और हिन्दू समाज में प्रविष्ट कियापौराणिक नहीं चाहते थे कि दलितों को हिंदू दायरे में लाया जाएमुसलमानों और ईसाइयों ने भी इसका घोर विरोध कियापरंतु आर्यसमाजी अपनी राह पर डटे रहे और शुद्धि के कार्य को आगे बढ़ाते रहे.
पंजाब में दलित उद्धार के एक प्रमुख नेता लाला गंगाराम भी थेवे बजवाड़े के निवासी थेपरंतु उनके जीवन का अधिक भाग मुजफ़्फ़रगढ़ में व्यतीत हुआ थाउन्होंने मुजफ़्फ़रगढ़ में आर्यसमाज की स्थापना की और वेद प्रचार का कार्य आरंभ कर दिया.
बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा द्वारा पाँच क्षेत्रों में दलितों के उद्धार का कार्यक्रम आरम्भ किया गया :
1.  मुजफ़्फ़रगढ़मुल्तान में ओड़ों तथा मेहतों की शुद्धि का
2.  जालंधर व लुधियाना में रहतियों की शुद्धि का
3.  सिंध में वशिष्ठों की शुद्धि का और
4.  गुरदासपुर में डोमों की शुद्धि का
5.  स्यालकोटगुरदासपुर और गुजरात जिलों में मेघों की शुद्धि का

जम्मू-कश्मीर रियासत में मेघों की आबादी काफ़ी थीसन् 1911 की जनगणना में इस जाति के लोगों की संख्या 1,15,429 लिखी गई है और सन् 1921 की जनसंख्या की रिपोर्ट में 3,00,000 के लगभग हैयद्यपि मेघों का पेशा कपड़ा बुनना था पर हिंदू उन्हें अछूत समझते थेहिंदू न उनके हाथ का खाना खाते थे न उन्हें मंदिरों में जाने देते थेन ही उन्हें अपने कुओं से पानी भरने देते थेमेघों को कोई हिन्दू अपने घर नौकर भी नहीं रखता थाक्योंकि उनके छूने मात्र से ही उन्हें अपवित्र हो जाने का भय बना रहता थाउनकी इस दीन-हीन दशा की ओर लाला गंगाराम का ध्यान आकर्षित हुआगंगा राम जी स्यालकोट आर्यसमाज की जान थेउनकी प्रेरणा से 1903 के आरंभ में स्यालकोट आर्यसमाज ने मेघों को शुद्ध कर हिन्दू समाज में समुचित स्थान दिलाने का संकल्प किया और इसके लिए प्रयत्न आरंभ कर दिया. 1903 में स्यालकोट आर्यसमाज के वार्षिक उत्सव पर निश्चित किया गया कि मेघों की शुद्धि का श्रीगणेश कर दिया जाएन केवल सनातनी हिन्दुओं ने ही अपितु ईसाइयों और मुसलमान ने भी इसका विरोध कियापर आर्य लोग अपने इरादों से विचलित नहीं हुए. 28-03-1903 को 200 मेघों की शुद्धि कर दी गईपरंतु आर्यसमाज के इस कार्य को सवर्ण हिन्दू और मुसलमान सहन नहीं कर सकेस्यालकोट के राजपूत और मुसलमान ज़मींदारों के सामने मेघों की स्थिति गुलामों जैसी थीवे उन्हें दबाकर रखते थे और किसी भी दशा में उन्हें बराबरी का दर्जा देने को तैयार नहीं थेमेघ उन्हें ‘ग़रीब नवाज़’ कहकर बुलाया करते थेशुद्ध हुए मेघों ने उन्हें ‘नमस्ते’ करना शुरू कर दिया जिसे उन्होंने अपना अपमान समझाउनका कहना था कि ‘नमस्ते’ से बराबरी का संकेत मिलता हैपरिणाम यह हुआ कि राजपूतों ने शुद्ध हुए मेघों को लाठियों से पीटा और मुसलमान जमींदारों ने उन्हें न अपने कुओं से पानी भरने दिया और न ही पृथक कुएँ खोदने दिएमेघों पर झूठे मुकद्दमे भी चलाए गएइन अत्याचारों से भी शुद्धि का काम बंद नहीं हुआआर्यसमाजी जी जान से मेघों की सहायता के लिए वचनबद्ध थेवे उनके साथ खान-पान का व्यवहार करते थेपर्वों और संस्कारों के अवसर पर उनसे मिलते-जुलते थेऔर उनमें शिक्षा के प्रसार के लिए भी प्रयत्नशील थेआर्यों ने उन्हें ‘मेघ’ के स्थान पर ‘आर्य भगत’ कहना शुरू कर दिया थाएक नई पहचान दी थीमेघ लोग अनेक प्रकार की दस्तकारी सीख कर अपनी आर्थिक दशा को उन्नत कर सकेमेघ लोग बहुधा खेती-बाड़ीस्पोर्ट्ससर्जिकल जैसे कामों में देखे जा सकते थेइन्होंने अपनी मेहनत से स्यालकोट का नाम रोशन कियाइस प्रयोजन से आर्यसमाज द्वारा उनके लिए एक दस्तकारी स्कूल भी खोला गयाधीरे-धीरे मेघों के उद्धार का कार्य इतना बढ़ गया कि सन् 1910 में इसके लिए ‘आर्य मेघोद्धार सभा’ नाम से पृथक सभा स्थापित कर दी गई जिसके प्रधान राय ठाकुर दत्त धवन और मंत्री लाला गंगा राम वकील थे.
मेघों की दशा सुधारने के लिए आर्यसमाज द्वारा जो अनेक कार्य किए गएउनमें शिक्षा-प्रसार मुख्य थाउन्हें दस्तकारी शिक्षा देने के लिए जो स्कूल खोला गया थावह बाद में हाई स्कूल के रूप में परिवर्तित कर दिया गया थाउसके साथ एक आश्रम भी खोला गया था जिसमें रहने वाले छात्रों को अपने घर से केवल आटा ही  लाना होता थाउनकी अन्य सभी ज़रूरतें आर्यसमाज द्वारा ही पूरी की जाती थींहाई स्कूल के अतिरिक्त आर्य मेघों द्वारा सभा को तत्वाधान में देहात में सात प्राइमरी स्कूल भी खोले गए जिनके कारण मेघों को शिक्षा प्राप्त करने की अच्छी सुविधा प्राप्त हो गई थीसन् 1906 में स्यालकोट आर्यसमाज के प्रधान लाला देवीदयाल ने 2,000 रुपए इनके (शिक्षाके लिए दान दिए ताकि उनके सूद से मेघ विद्यार्थियों की उच्चशिक्षा की व्यवस्था की जा सकेइससे गुरुकुल गुजराँवाला में दो मेघ बालक निःशुल्क दाखिल किए गए और वहाँ उन्होंने उच्चशिक्षा प्राप्त कीसन् 1909 में लाला ज्ञान चंद्र पुरी ने मेघ बालकों को वेद-शास्त्रों की शिक्षा दिलाने के संबंध में कुछ लेख ‘प्रकाश’ पत्र में प्रकाशित किए कि जिन्हें पढ़ कर डेरा इस्माइल खान के पुस्तक विक्रेता श्री सायरू सिंह ने गुरुकुल कांगड़ी में एक मेघ बालक को शिक्षा दिलाने के लिए वजीफा प्रदान कर दियाइससे ‘आर्य भगत’ महाशय केसर चन्द के पुत्र ईश्वरदत्त को गुरुकुल में दाखिल करवाया गया था और वो वहाँ चार वर्ष तक नियम पूर्वक उच्चशिक्षा प्राप्त कर सन् 1925 में स्नातक (बी..) बन कर निकलाइस प्रकार आर्यसमाज के प्रयत्नों से जो मेघ बालक उच्चशिक्षा प्राप्त कर सकने में समर्थ हो गए थे उनमें अछूतपन नाम की कोई चीज़ बाकी नहीं रह गई थीऊँच-नीच को मिटाने के लिए उनके विवाह भी उच्च जातियों में हुए और अध्यापक के सम्मानजनक पदों पर उनकी नियुक्ति हुई.
अछूत समझी जाने वाली जातियों की दुर्दशा को ठीक करने तथा आर्थिक दशा को उन्नत करने के लिए सरकार द्वारा भूमि प्रदान करना निश्चित किया गयाताकि वहाँ मेघों के समान अछूत जातियों के लोग खेती कर सकेंसन् 1910 में क्रिश्चियन सोसाइटी को 5500 एकड़ और सेलवेशन आर्मी को 2000 एकड़ भूमि कृषि के लिए दी गईआर्य मेघोद्धार सभा ने भी मेघों (आर्य भगतोंके लिए सरकार से भूमि प्राप्त करने का यत्न किया और उसमें सफल हो गएखानेवाल स्टेशन के पास एक बड़ा अच्छा भूखण्ड मेघोद्धार सभा को दिया गया जहाँ उसने आर्य नगर नाम की एक नई बस्ती बनाने की योजना बनाईबहुत से आर्य भगत वहाँ खेती के लिए बस गए.
उनको जमीनों का मालिक बनाया गया और जमींदारों के बराबर लाकर खड़ा कर दिया गयाआर्यसमाज ने मेघों के कल्याण के लिए विशेष ध्यान दियालड़कों व लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोले गए और इलाज के लिए अस्पताल भी खोला गयाउचित मूल्य पर वस्तुओं की उपलब्धि के लिए वहाँ एक कार्पोरेशन स्टोर भी खोल दिया गयाआर्य नगर में एक आर्यसमाज भी स्थापित कर दिया गयाइस सबका परिणाम यह हुआ कि आर्य नगर एक आदर्श बस्ती बन गयाअछूत समझी जाने वाली जातियों की आर्थिक और सामाजिक दशा जिस प्रकार सुधरी उनका अंदाजा बड़ी आसानी से लगाया जा सकता हैबहुत सी बाधाओं और विरोध के बावजूद अछूतोद्धार आंदोलन पर्याप्त सफलताओं को प्राप्त हुआ.
अछूतों की दशा सुधारने के लिए आर्य भाइयों ने अपना तनमनधन बलिदान कर दियाइसमें महाशय रामचन्द्र जी का स्थान सर्वोपरि हैउनका जन्म 1896 में कठुआकश्मीर में हुआ थासाधारण शिक्षा प्राप्त करके सरकारी सेवा में खजाँची के पद पर नियुक्त हुए थेवे कट्टर आर्यसमाजी थे और दलितोद्धार की उन्हें धुन लगी हुई थीसन् 1923 में उनकी बदली अख़नूर में हो गईवहाँ उन्होंने आर्यसमाज का कार्य शुरू कर दियाअख़नूर और उनके आसपास के पहाडी इलाकों में मेघों की अनेक बस्तियाँ थींउन्होंने एक कमरा किराए पर लेकर मेघों के लिए पाठशाला खोल दीखजाँची के काम से जब फ़ुर्सत मिलती तो वे मेघों की उन्नति में लग जातेआधी-आधी रात तक उनकी बस्तियों में घूमनाउन्हें पढ़ानारोगियों को दवा देना और उनके सुख-दुख में शामिल होना उनका रोज़ का काम थामहाशय जी का यह काम ऊँची जाति के हिन्दू नहीं सह सकेविशेषतया उन्हें मेघों की शिक्षा से सख्त ऐतराज थापरिणाम यह हुआ कि हिन्दुओं ने आर्य समाजियों से नाता तोड़ लियापरेशान होकर कुछ आर्य समाजियों का विचार था की मेघों की पाठशालाएँ बस्तियों से दूर खोल दी जाएँपरंतु महाशय रामचन्द्र इससे सहमत नहीं हुएउनका कहना था कि कोई भी मनुष्य या जाति अछूत नहीं हैअतः मेघों के बच्चों को अछूत समझकर क्यों दूर किया जाएउनके प्रयत्नों से मेघों की पाठशाला के लिए जमीन प्राप्त हो गई थी और उस पर स्कूल की इमारत बना ली गईअख़नूर की पाठशाला की सफ़लता से आसपास की बस्तियों के मेघों में उत्साह का संचार हुआ और वे भी पाठशालाएँ खोलने के लिए प्रयत्न करने लगेअखनूर से चार मील की दूरी पर बटोहड़ा की बस्ती है वहाँ के मेघों ने महाशय रामचन्द्र की सहायता से वहाँ पाठशाला शुरू कर लीउन्हें देखकर राजपूत लोग भड़क उठे और उन्होंने लाठियाँ लेकर आर्यों पर हमला बोल दियापरंतु महाशय रामचन्द्र जी इससे घबराए नहींउन्होंने वहाँ पर आर्यसमाज स्थापित करके एक उपदेशक भी रख दियाजम्मू से भी कुछ आर्य सज्जन बटोहड़ा आगएवहाँ पर राजपूतों को भली-भांति पता था कि जो भी अछूतोद्धार का कार्य वहाँ चल रहा है उसके पीछे महाशय रामचन्द्र का हाथ हैउन्होंने उसकी हत्या का षड्यंत्र रचा और डेढ़ सौ के लगभग व्यक्तियों ने भालोंलाठियों और बरछों से उन पर आक्रमण कर दियाघायल दशा में उनको सरकारी अस्पताल में पहुँचाया गयाजहाँ 20-01-1923 को उनकी मृत्यु हो गईमहाशय रामचन्द्र जी जब तक जीवित रहे अछूतोद्धार के लिए जी-जान से प्रयत्न करते रहे और इसी के लिए उन्होंने अपने जीवन का बलिदान दे दियाआर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब ने लाहौर में ‘रामचन्द्र स्मारक’ बनाया थाजहाँ हर वर्ष भारी मेला लगता था.
1906 में दौलत नगर में आर्यसमाज की स्थापना की गईचार वर्ष पश्चात 1910 में गुलाब नाम के एक मेघ को शुद्ध करके आर्य बना लिया गयाजब उसकी मृत्यु हुई तो सनातनियों ने उसके शव को श्मशान में दाह संस्कार करने से रोकना चाहापरंतु आर्यसमाजी इससे घबराए नहींसनातनियों के विरोध के बावजूद उन्होंने गुलाब का वैदिक रीति से संस्कार कियाइस पर पौराणिक हिन्दुओं ने आर्यों का बहिष्कार कर दिया पर आर्य अपने मंतव्यों पर डटे रहे.
उत्तरी पंजाब का स्यालकोट नगरकभी वैदिक धर्म का महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता थावहाँ सन् 1884 में लाला दयाराम वकील तथा लाला भीन सेन वकील द्वारा आर्यसमाज की स्थापना की गई थीसन् 1886 में स्यालकोट में जब आर्यसमाज का दूसरा वार्षिक उत्सव हुआ तो उसमें प्रीतिभोज की व्यवस्था की गई थीउस समय ऊँच-नीच छूआछूत का भेदभाव बहुत थासब वर्गों के लोगों ने आपसी भेदभाव भुलाकर प्रीतिभोज कियास्यालकोट के डस्का शहर में सन् 1884 में और जफ़रवाला में 1887 में आर्यसमाज स्थापित हो चुकी थीडस्का में आर्यसमाज की स्थापना पंडित लेख राम द्वारा की गई थी और जफ़रवाला में स्वामी आला नेये दोनों समाजें मेघों के उद्धार के केंद्र थे.
स्यालकोट के क्षेत्रों में आर्यसमाज के नेता श्री गंगा राम का इस शुद्धिकरण में बहुत बड़ा योगदान हैदूसरी ओर सिंह सभा लहर के नेता श्री बूटासिंह नाम के संत थेवे स्वयं भी कबीर पंथियों में से थे और अमृतधारी सिख होने के बाद मेघ लोगों को सिख बनाकर कबीर पंथियों में शमूलियत रहे थे.
आर्यसमाज ने निम्नजातियों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कियानिर्धन अथवा अछूत परिवार के बच्चों को छात्रवृत्तियाँ दी गईं और योग्य विद्यार्थियों को उच्चशिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया गयादेखने की बात है कि इन लोगों को शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण अच्छी नौकरियाँ प्राप्त हुईंबहुत से लोग फ़ौज में भर्ती होने लगेसैनिक लौटने पर अपने बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थेहमने देखा है कि आजादी के बाद उच्च अधिकारियों में कबीर पंथी लोगों की बहुत बड़ी संख्या हैभले ही सिंह सभा लहर के अंतर्गत शिक्षा का प्रसार किया जाता रहा है परंतु ग्रामीण परिवेश के कारण कबीर पंथी सिख लोगों को उच्चशिक्षा का उतना अवसर प्राप्त नहीं हुआ हैजितना कि आर्यसमाज के अंतर्गत शहरी कबीर पंथियों को उपलब्ध हुआ है.
सिंह सभा आंदोलन और कबीर पंथ

आधुनिक पंजाब के धार्मिक एवं समाज सुधारक आंदोलनों में सिंह सभा आंदोलन एक महत्वपूर्ण आंदोलन थाइसका उद्देश्य सिख धर्म का सुधार करना सिखों में अंधविश्वासों तथा झूठे रीति-रिवाजों को दूर करना थापंजाबी भाषा का प्रचार करना तथा सिखों में शिक्षा का प्रसार आदि करना थाइस आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि इसका लोकतंत्रीय सिद्धांतों के अनुसार गठन किया गया थाइस आंदोलन से पहले सिखों में निरंकारी तथा नामधारी नामक आंदोलनों ने जन्म लिया थाउन दोनों आंदोलनों का नेतृत्व उनके अपने-अपने गुरुओं ने किया था और गुरु का शब्द ही उनके अनुयायियों के लिए कानून होता थापरंतु सिंह सभा का कार्यक्रम किसी एक व्यक्ति अथवा गुरु की आज्ञानुसार नहीं चलता थाउन्होंने पश्चिमी ढंग पर अपना संविधान बनाया था और सिंह सभा के सदस्य लोकतंत्रीय नियम के अनुसार चुने जाते थेइस आंदोलन की नींव 1873 में रखी गईइसने सिखों में एक नया जोश उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण योगदान दियाअतः इसे सिख इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है.
आंदोलन की उत्पत्ति के कारण :-
सिंह सभा की उत्पत्ति के कई कारण थेपहला 19 वीं शताब्दी में सिख व्यर्थ के रीति-रिवाजों तथा अंध विश्वासों को मानने लगे थेजिस कारण धर्म में सुधार की आवश्यकता अनुभव की गईदूसरापंजाब के ब्रिटिश राज्य में मिलने के पश्चात ईसाई धर्म के प्रचारकों ने सिखों को अपने मत में मिलाने के लिए प्रयत्न आरंभ कर दिए थेसर जॉन लारेंस ईसाई मत का उत्साही संरक्षक था और उसके प्रोत्साहन के कारण पंजाब में ईसाई मत ज़ोर पकड़ने लगापरिणामस्वरूप बहुत से सिख अपना धर्म छोड़ कर ईसाई मत को अपनाने लगेइस अवस्था में सिख मत के शुभचिन्तकों ने धर्म की रक्षा के लिए पग उठाने की सोचीतीसराब्रिटिश सरकार के प्रोत्साहन से पंजाब में मिशनरी स्कूल खोले जाने लगे. 1853 ईस्वी में अमृतसर में ऐसे स्कूल की स्थापना हुईइस स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने वाले सिख विद्यार्थी ईसाई मत को सिख धर्म से अधिक अच्छी तरह जानने लगे और उनका झुकाव ईसाई मत की ओर बढ़ने लगा. 1873 ईस्वी में इस स्कूल के चार सिख विद्यार्थियों ने ईसाई मत को अपनाने की इच्छा प्रकट कीइससे अमृतसर के सिख भड़क उठेउन चार विद्यार्थियों को ईसाई मत अपनाने से रोका गया और साथ ही सिख मत का प्रचार करने के लिए सिंह सभा के निर्माण की आवश्यकता का अनुभव किया गयाचौथाब्रिटिश सरकार ने पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी को सिखों का इतिहास लिखने का कार्य सौंपापंडित श्रद्धाराम सिख मत के बारे में अच्छी भावनाएँ नहीं रखता थाउसने अमृतसर में गुरु का बाग़ नामक स्थान पर कुछ भाषण दिएजिनमें उसने सिख गुरुओं तथा सिख धार्मिक ग्रंथों की कठोर शब्दों में निंदा कीइसे सिख सहन नहीं कर सकेअतः अपने धर्म की रक्षा के लिए विचार-विमर्श करने के उद्देश्य से अमृतसर में माननीय सिखों की बैठक हुईजिसमें सिंह सभा के गठन का निर्णय हुआ.
सिंह सभा की स्थापना इसके नियम एवं उद्देश्य
प्रथम सिंह सभा की स्थापना 1873 में अमृतसर में हुईदशहरे के दिन (01-10-1873) मंजी साहब नामक स्थान पर सिंह सभा के उद्घाटन के लिए एक सभा बुलाई गईइस सभा में सिख पुजारियोंमहंतोंग्रंथियोंज्ञानियों तथा कुछ प्रसिद्ध सरदारों ने भाग लिया इसमें बाबा खेम सिंह बेदी (जो गुरुनानक के घराने से संबंध रखते थेतथा सरदार ठाकुर सिंह संधावालिया (जो बाद में सिंह सभा के प्रधान चुने गएभी थेकुछ वाद-विवाद के पश्चात सभा के कार्य को सुगमता से चलाने के लिए कई नियम बनाए गएप्रांत के सभी भागों से सिख सिंह सभा के सदस्य बन सकते थेप्रत्येक सदस्य के लिए जरूरी था कि वह सिख मत तथा गुरुओं के उपदेशों पर दृढ़ विश्वास रखता होउसे सिंह सभा के प्रति स्वामी भक्त होने तथा सिख संप्रदाय की सेवा करने की भी प्रतिज्ञा लेनी होती थीउसे सभा को प्रतिमास कुछ चंदा भी देना होता थाआरंभ में अमृतसर की सिंह सभा के सदस्यों की कुल संख्या 95 थी जो बाद में बढ़ती गई.
सिंह सभा की कार्यपालिका कमेटी होती थी जिसमें एक प्रधानएक सचिव तथा कुछ सदस्य होते थेबाद में प्रधान तथा सचिव के अतिरिक्त उपप्रधानसहायक सचिवज्ञानीउपदेशकखजाँची तथा लाईब्रेरियन को भी कार्यपालिका के कार्यकारियों के रूप में निर्वाचित किया जाने लगाअमृतसर सिंह सभा के प्रथम प्रधान सरदार ठाकुर सिंह संधावालिया तथा प्रथम सचिव ज्ञानी ज्ञान सिंह थेअमृतसर सभा की स्थापना के कुछ वर्ष पश्चात ही पंजाब के विभिन्न भागों में बहुत सी सिंह सभाएँ स्थापित हो गईंजिन का मुख्य उद्देश्य इस तरह से था :
1.  सिख धर्म की पवित्रता को पुनः स्थापित करना
2.  सिख धर्म तथा इतिहास संबंधी पुस्तकें लिखवाना तथा उन्हें छपवाना
3.  सिख धर्म को त्यागने वालों को वापिस इस धर्म में लाना
4.  पंजाबी भाषा के ज्ञान का प्रसार करना तथा पंजाबी समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ जारी करना
5.  उच्चवर्गीय अंग्रेजों को सिखों के शिक्षा संबंधी कार्यक्रम से परिचित करवाना तथा उनका सहयोग प्राप्त करना.

सिंह सभा आंदोलन का विकास
अमृतसर सिंह सभा की सफलता से प्रेरित होकर सिखों ने धीरे-धीरे पंजाब के विभिन्न भागों में बहुत-सी सिंह सभाएँ स्थापित कर लींलाहौर में सिंह सभा की स्थापना 1879 ईस्वी में हुई और इसका श्रेय प्रोफेसर भाई गुरमुख सिंह को प्राप्त हुआ जो कपूरथला के निर्धन परिवार से संबंधित थेगुरुमुख सिंह ने सिख धर्म के सुधार में बहुत रुचि लेनी आरंभ कर दीउनके प्रयत्नों के कारण लाहौर ओरिएंटल कालेज में पंजाबी भाषा एक विषय के रूप में चालू की गई और वे स्वयं पंजाबी भाषा के अध्यापक नियुक्त्त हुएउन्होंने अमृतसर सिंह सभा को एक नया जीवन प्रदान करने में सरदार ठाकुर सिंह संधावालिया और राजकुमार विक्रम सिंह की बहुमूल्य सहायता की. 1879 ईस्वी में उन्होंने लाहौर में अपने नेतृत्व में लाहौर सिंह सभा की स्थापना कीपंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर राबर्ट एगरसन को इस सभा का संरक्षक बनाया गया. 1880 ईस्वी में भाई गुरुमुख सिंह ने गुरमुखी अखबार चालू कियातत्पश्चात उन्होंने पंजाब के विभिन्न भागों की यात्राएँ कींउनके प्रयत्नों के फलस्वरूप पंजाब के बहुत से नगरों तथा सिख मत के केन्द्रों में सिंह सभाएँ कायम हुईंकुछ ही वर्षों में सिंह सभाओं की गिनती 36-37 तक पहुँच गईअमृतसर सिंह सभा तथा लाहौर सिंह सभा में आपसी फूट के कारण सिंह सभा आंदोलन की प्रगति रुक गई. 1902 में चीफ़ खालसा दीवान की आपसी फूट के कारण सिंह सभा आंदोलन की प्रगति रुक गई. 1902 में चीन खालसा दीवान की स्थापना से सिंह सभाओं में इस केंद्रीय संस्था के अधीन एकता स्थापित हो गई और सिंह सभा आंदोलन के विकास के लिए मार्ग साफ़ हो गया. 1920 तक सिंह सभाओं की कुल संख्या 105 तक पहुँच गई.
सिंह सभा के कार्य एवं उपलब्धियाँ
सिंह सभा ने धार्मिकसामाजिक शिक्षा संबंधी तथा राजनीतिक क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किएइसकी सफलताओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
1. धार्मिक क्षेत्र सिंह सभा के प्रयत्नों के फलस्वरूप सिख मत का पुनः सुधार हुआइसमें पहले सिख लोग धर्म के वास्तविक सिद्धांतों को भूल बैठे थे तथा ब्राह्मण मत के प्रभाव में बहुत से अंधविश्वासों और झूठे रीति-रिवाजों पर विश्वास करने लगे थेसिंह सभा के प्रचारकों ने लोगों को पंजाबी भाषासिख धर्म के वास्तविक सिद्धांतों तथा सिख गुरुओं के उपदेशों का ज्ञान प्रदान कियाआरंभ में सिंह सभा आंदोलन का गाँव के लोगों ने विरोध किया क्योंकि वे उसके नए विचारों को ठीक ढंग से न समझ पाएपरंतु सिंह सभाओं के प्रचारकों ने अपने उत्साहपूर्ण प्रयत्न जारी रखेउन्होंने अपने नवीन विचारों को कृषकों तक पहुँचाने के लिए सिख सैनिकों की सहायता लीएक रेजीमेंट के गायकों की मंडली बनाई गई जो गाँव में जाकर सिख धर्मकीर्तन तथा गुरुबाणी का प्रचार करती थीधीरे-धीरे सिंह सभा को गाँव में भी अपने सिद्धांतों का प्रचार करने में सफलता प्राप्त होने लगी.
सिंह सभा की स्थापना से सिख धर्म की रक्षा हुई और लोगों ने ईसाई मत तथा अन्य मतों को अपनाना बंद कर दियाइस आंदोलन से पहले ईसाई प्रचारकों तथा मिशनरी स्कूलों की शिक्षा के प्रभाव से ईसाई मत को अपनाया जाने लगा थासिंह सभा के प्रचारकों ने बड़े आवेग से सिख धर्म का प्रचार किया.
सामाजिक क्षेत्र सिंह सभा ने सामाजिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किएइस आंदोलन के प्रचारकों ने जातिप्रथाछुआछूत तथा अन्य सामाजिक कुरीतियों का खण्डन किया और सामाजिक एकता का प्रचार कियालाहौर सिंह सभा में बहुत से मध्यम श्रेणी तथा निम्न जातियों के लोग शामिल हुएअमृतसर सिंह सभा में उच्च श्रेणी के सिखों का प्रभुत्व थाइसलिए अमृतसर सिंह सभा (बाद में अमृतसर खालसा दीवानसिखों में अप्रिय हो गई और लाहौर सिंह सभा की सर्वप्रियता बढ़ती गई.
सिंह सभा के प्रयत्नों के फलस्वरूप कई नगरों में खालसा अस्पताल खोले गए जहाँ निर्धन रोगियों का मुफ़्त इलाज किया जाता थापंथ के अनाथ बच्चों के पालन-पोषण के लिए गुजरांवाला तथा अन्य स्थानों पर अनाथालय खोले गएअमृतसर में सरदार सुन्दर सिंह मजीठिया ने केंद्रीय खालसा अनाथालय की स्थापना कीबाद में अमृतसर में एक अन्य आश्रम भी खोला गयासरदार साधु सिंह ने अमृतसर में लड़कियों के लिए खालसा दस्तकारी स्कूल की स्थापना की.
शिक्षा का क्षेत्र सिंह सभा के मुख्य उद्देश्यों में एक उद्देश्य पंजाब में सिख धर्म के सिद्धांतों के अनुसार शिक्षा का प्रसार थासौभाग्यवश सिंह सभा ने शीघ्र ही बहुत से शिक्षित सिखों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया था और उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप न केवल पंजाबी भाषा का प्रचार हुआ अपितु सिख विद्यार्थियों को धर्मानुसार शिक्षा देने के लिए स्थान-स्थान पर खालसा स्कूल और कालेज खोले गएजैसा कि पीछे बताया गया है कि 1887 ईस्वी में प्रोफ़ेसर भाई गुरुमुख सिंह ने लाहौर ओरिएंटल कॉलेज में पंजाबी भाषा एक विषय के रूप में चालू करवाई और स्वयं पंजाबी के अध्यापक नियुक्त हुएबाबा खेम सिंह बेदी ने गुरुमुखी स्कूलों की स्थापना का कार्य आरंभ कियाइससे पहले सिख विद्यार्थी प्रायः मंदिरोंमस्जिदों अथवा मिशनरी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करते थेकिंतु इन स्कूलों की स्थापना से वे अपने धर्म के सिद्धांतों के अनुसार पंजाबी भाषा में शिक्षा प्राप्त करने लगे. 1892 में अमृतसर में खालसा कालेज की नींव रखी गईधीरे-धीरे पंजाब के विभिन्न नगरों में खालसा स्कूल तथा खालसा कॉलेजों का जाल बिछा दिया गया.
सिंह सभा ने स्त्री शिक्षा की ओर भी उचित ध्यान दियासिख कन्या महाविद्यालय फ़िरोज़पुरखालसा भुजंगन स्कूलकैरों तथा विद्या भंडारभड़ौस प्रसिद्ध प्रारंभिक कन्या विश्वविद्यालय थे जो सिंह सभा के प्रभाव में स्थापित किए गएतत्पश्चात ऐसे कन्या विद्यालय अन्य नगरों में भी कायम हुएइन विद्यालयों ने सिख स्त्रियों में शिक्षा संबंधी जागृति लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया.
यही नहीं सिंह सभा के प्रयत्नों से पंजाबी में पुस्तकें छापने का कार्य भी ज़ोरों से आरंभ हुआनाभा के राजा हीरासिंह के सहयोग से लाहौर में एक खालसा प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की गईइसके पश्चात लाहौर और अमृतसर में कई और प्रेस खोले गएइनमें से अनेक पंजाबी अखबार तथा पंजाबी पुस्तकें प्रकाशित हुईं.
सिख समाचार-पत्रों मेंजो लाहौर व अमृतसर से छपते थे, ‘खलासा अखबार’, ‘खालसा समाचार’, ‘खालसा बहादुर’ तथा ‘सिंह सहाय’ के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैंसिख इतिहास तथा धर्म संबंधी कई ग्रंथ तथा टीके पंजाबी में छापे गएजैसे भाई गुरुमुख सिंह का ‘भारत का इतिहास’भाई दित्त सिंह का 'देवी पूजन पड़ताल', ज्ञानी ज्ञान सिंह के 'तवारीख गुरु खालसा', 'शमशीर खालसा', 'राज खालसातथा 'पंथ प्रकाश', फरीदकोट के राजा द्वारा लिखवाया गया 'टीका गुरु ग्रंथ साहबतथा बाद में भाई वीर सिंह की अनेक रचनाएँ आदिइस प्रकार सिखों में शिक्षा एवं ज्ञान प्रसार करने तथा पंजाबी भाषा को सर्वप्रिय भाषा बनाने में सिंह सभा ने अमूल्य योगदान दिया.
राजनीतिक क्षेत्र यद्यपि सिंह सभा ब्रिटिश सरकार से विद्रोह करने के पक्ष में नहीं थी और इसमें पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर तथा उच्चकोटि के ब्रिटिश अधिकारियों को शामिल किया गया था तथापि सिंह सभा ने राजनीतिक क्षेत्र में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में कुछ कार्य अवश्य किएसिंह सभा के प्रचार के फलस्वरूप सिखों में विशेष जागृति उत्पन्न हुई और शनैः-शनैः वे राजनीतिक अधिकारों की माँग करने लगेउस समय जबकि अकाली दल का जन्म नहीं हुआ था सिंह सभा तथा बाद में चीफ खालसा दीवान सिखों की मात्र संस्था थी जो 47 वर्ष तक सिखों का नेतृत्व करती रहीब्रिटिश सरकार के प्रति सद्भावना का व्यवहार रखते हुए तथा शांतिमय ढंग से धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों का प्रचार करते हुए सिंह सभा ने सिखों में ऐसी भावना जागृत कर दी जिन्होंने बाद में उन्हें अपने राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने पर विवश कियाकहा जाता है कि सिंह सभा के प्रयत्नों के फलस्वरूप ही बाद में अकाली दल का जन्म हुआजिसने सिखों के अधिकारों की प्राप्ति के लिए घोर संघर्ष किया.
सिंह सभा ने पटियालाजींदनाभाकपूरथला तथा फरीदकोट की रियासतों के सिख शासकों के अधिकारों की रक्षा का भी प्रचार कियाजब कभी ब्रिटिश सरकार उनके आंतरिक मामलों में अनुचित हस्तक्षेप करती थी तो सिख समाचार-पत्र इस नीति की निंदा करते हुए ब्रिटिश सरकार को अपील करते थे कि सिख राजाओं के संधि संबंधी अधिकारों की अवहेलना न की जाएयह भी नहीं भूलना चाहिए कई सिख शासकों ने सिंह सभा के कार्यों में महत्वपूर्ण भाग लिया था.
साक्षात्कारों से पता चला है ढोढू कोंट गांव में 1824 में जन्मे बाबा बूटा सिंह को खालसा राज का अनुभव थाएक छोटी-सी पुस्तक है जिसके लेखक कवि बांत सिंह ज्ञानी थेइस पुस्तक के प्रकाशन के सन् का पता नहीं चलता हैबाबा बूटा सिंह ‘मेघ’ थेइनकी शादी जम्मू के गाँव ‘पिंडी’ में हुई थीयह इस लिए लिखा जा रहा है कि कुछ कबीरपंथी मेघ लोग पहले से ही सिख थे और जो सिख होता था उससे छुआछूत नहीं होता थायह भी साक्षात्कारों से पता चलता हैइस पुस्तक से पता चलता है कि जब सिंह सभा लहर चली तब ये लोग डाँवाडोल थे और जंगलों में भटक रहे थेइन्होंने 15 आषाढ़, 1882 के दिन अपने गाँव में सिंह सभा की कांफ्रेंस की थी और इसी दिन 150 लोगों को अमृतपान भी कराया गया थाबाबा बूटा सिंह ने पहली पत्नी के निधन उपरांत दूसरा विवाह कर लिया था जो जम्मू के गाँव जाड़ी में ही हुआ था.
बाबा बूटा सिंह ने ‘खालसा कबीर दल’ की स्थापना भी की थीइससे यह पता चलता है कि इन्होंने काफ़ी कबीर पंथी लोगों को सिंह सभा लहर से ही नहीं जोड़ा अपितु सिख बनायावे सारी उम्र लोगों में सिख धर्म का प्रचार करते रहे थेएक स्यालकोट के गाँव में इनकी प्रशंसा होती थीलगता है कि यह पहले आदमी थे जिन्होंने मेघों को सिख बनाने के लिए प्रचार किया और नेतृत्व प्रदान कियादेखने की बात यह है कि मेघ लोग तम्बाकू का सेवन करते थेइसलिए ये सिख कम बने क्योंकि वहाँ तम्बाकू निषेध थालेकिन फिर भी गाँव के बहुत लोग सिख बनेगाँव में सिंह सभा का बहुत प्रचार हुआ व लहर जोर पकड़ चुकी थीं. 20-06-1935 को बाबा बूटा सिंह का देहांत हो गयासाक्षात्कारों से यह भी पता चला है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी दलित बच्चों को पढ़ाई के लिए वजीफा भी देती रही है खासकर मेघ बच्चों को जो कबीरपंथी कहलाते थे.
कबीरपंथ जनजातीय समुदाय का सामाजिक रूपान्तरण
यह निर्विवाद है कि पंजाब के कबीरपंथी मूलतः जम्मू के आसपास की पहाड़ियों की तलहटी में निवास करने वाली एक जनजाति से संबद्ध थेइस जनजाति को मेघ कहा जाता थामेघ जनजाति के मूलधारा में प्रविष्ट किए जाने का मुख्य कारण स्यालकोटगुरदासपुर और गुजरात में अंग्रेज़ों के आने का नया औद्योगिक परिवेश हैभारतीय इतिहास के अतीत की तरह इस दौर में भी इस जनजाति की शमूलियत श्रमिक भर्ती के रूप में हुई हैस्यालकोट जैसे नगर में उद्योग धंधों के विकास के साथ नए श्रमिकों की जरूरत के तहत इस जनजाति को स्थान मिला हैइसी प्रकार नई भूमि के विकास में खेत-मजदूरों के रूप में भी इस जाति के लोग नियुक्त किए गए हैं.
एक जनजाति के रूप में जम्मू रियासत के राजपूतों और ऊँची जातियों ने इनका लगातार दोहन कर रखा था.
सन् 1882 की जनगणना में इस जनजाति ने धर्म के रूप में कबीरपंथी नाम दर्ज करवाया थाइस जनजाति को एक सामाजिक समुदाय के रूप में स्यालकोट में एक गतिशील परिवेश में प्रविष्ट होने का अवसर प्राप्त हुआये 1850 में स्यालकोट की ओर जाने लगेअंग्रेजों के आने के बाद स्यालकोट नगर में जब नए उद्योग धंधों का विकास हुआ तो श्रमिक रूप में भर्ती के लिए जम्मू क्षेत्र से ये लोग स्यालकोट आ बसेअधिकतर ये मेघ सूती कपड़े के काम में लगाए गए थेसूती कपड़े के नए-नए कारखाने लग रहे थेखेलों का सामान बनने लगा थावास्तव में इन कारखानों के कारीगर मुसलमान होते थेअब मुसलमान कारीगरों की सहायता में ये लोग भर्ती किए जाते थेअब समस्या यह भी थी कि मुसलमान शिल्पियों के साथ मिलकर ये लोग भी मुसलमान धर्म कबूल कर लेतेपरंतु आर्यसमाज के शुद्धिकरण के आंदोलन के कारण इन्हें आर्यसमाज ने हिन्दू समाज की मूलधारा में लाने के लिए जो प्रयास किए उसमें इनके सूत का कार्य करने के व्यवसाय के कारण इन्हें कबीरपंथी कहा जाने लगाभारतीय इतिहास की यह लाक्षणिकता है कि जब भी कभी किसी जनजाति को मूलधारा में लाए जाने का प्रयास किया गया तो उस जनजाति को शूद्र रूप में उसका व्यवसायगत नामकरण दे दिया गयाइस कबीले को मुसलमान होने से बचाने के लिए आर्यसमाज ने शुद्धिकरण का प्रयास करते हुए इन्हें एक शूद्र रूप में ‘भगत’ नाम की संज्ञा प्रदान की.
इसी काल में आर्यसमाज की प्रतियोगिता में सिंह सभा लहर का आंदोलन भी ज़ोरों पर थाआर्यसमाज के लोग मुख्यतः शहरी मध्य वर्ग से थे और सिंह सभा लहर का प्रभाव ग्रामीण सिख किसानों पर थाइस मेघ जनजाति के लोग जो गाँव में खेत-मजदूर के रूप में भर्ती हुए थे गाँव में जाकर खड्डियों पर काम करने लगे वह सिंह सभा लहर के प्रभाव के अंतर्गत केशधारी सिख बना लिए गए और इस प्रकार सिखों में एक नई जाति 'कबीरपंथियोंका उद्भव हुआइसके विपरीत शहरों के उद्योग धंधों में मजदूरी का काम करने वाले कबीर पंथी आर्यसमाज की विचारधारा का प्रभाव ग्रहण करने लगे और ‘मोने’ बने रहे और 'आर्य भगतकहलाने लगेजबकि मेघ लोग ग्रामीण क्षेत्रों में सिख हो गएलेकिन कबीरपंथ की पहचान उन्हें दे दी गईयह उसी प्रकार था जैसे सिखों में मज़हबीरामदासियेरामगढ़िये आदि अन्य अनेक शिल्पी  निम्नजातियाँ हैं.
हमें ध्यान रखना चाहिए कि कबीरपंथी होने से पहले जम्मू क्षेत्र में केंद्रित मेघ जनजाति के लोग अछूतों से भी दयनीय स्थिति में जीवन यापन करते रहे हैंइन्हें हिन्दू व मुसलमान दोनों धर्मों के लोग घृणा और तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे और इनका मंदिरमस्जिद में प्रवेश निषिद्ध थाइन क्षेत्रों के सत्ताधारी राजपूत अथवा डोगरे इनके प्रति बड़े पाश्विक अत्याचार करते रहे हैंये सामंती शोषण का शिकार थेये बंधुआ रूप में ऊँची जातियों की सेवा में लगे हुए थे.
स्यालकोट के उद्योग धंधों के विकास में और अँगरेजी हुकूमत के कारण ये लोग सामन्ती उत्पीड़न से छुटकारा पाते हुए उद्योग धंधों में स्वतंत्र श्रमिक के रूप में काम करने का अवसर पा सके.
ध्यान देने की बात है कि मुस्लिम शिल्पी इन जनजाति लोगों के साथ हिंदुओं की तरह ही घृणा करते थेभले ही मुस्लिम शिल्पियों के सहायक थेलेकिन धीरे-धीरे वे स्वयं बहुत कुशल शिल्पी के रूप में अपना स्थान बनाते चले गए.
जैसा कि उल्लेख किया गया है नए परिवेश में रोजगार के नए अवसर प्राप्त होते ही ये लोग जम्मू के रियासती इलाकों से भाग कर स्यालकोट आदि नगरों में बस गएभले ही इनकी स्थिति अब भी अतीव निम्नजातीय अछूत के समान थी पर अब उन्हें उद्योग धंधों में नकद अदायगी होने लगी थी जिससे एक नई गतिशीलता इनमें दिखाई देने लगी 
यहाँ इस बात का भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि दलित जातियों में ईसाई मिशनरियों के प्रभाव को दूर करने के लिए हिन्दू और सिख समुदायों ने भी दलितों को अपनी ओर आकर्षित करना शुरू कर दिया थाहिन्दुओं के सुधारवादी आंदोलन आर्यसमाज ने और सिखों के सुधार वादी आंदोलन सिंह सभा ने इस जनजाति को 'आर्य भगतअथवा 'कबीरपंथीका नया नाम संस्कार प्रदान करते हुए इनकी गतिशीलता को नए सिरे से उभरने का अवसर प्रदान किया है.
साथ ही इसी समय ईसाई मिशनरी व सिंह सभा तथा आर्यसमाज ने भी इन लोगों की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया था क्योंकि इसके पीछे वजह यह थी कि इंडियन कौंसिल एक्ट, 1909 जिसे मार्ले मिंटो सुधार, 1909 भी कहा जाता हैके अनुसार सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था की गई और इस एक्ट के अनुसार विधान परिषदों के चुनाव में विभिन्न वर्गों और हितों को भिन्न-भिन्न प्रतिनिधित्व दिया गयाछोटे-छोटे वर्गों को भी विधान परिषदों में अपने अलग प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गयामुसलमानों को अलग प्रतिनिधित्व दिया गयाकुछ ही वर्षों में पंजाब में मुसलमानों की तरह सिखों ने भीमद्रास में गैर ब्राह्मणों ने और एंग्लो इंडियन आदि ने अलग प्रतिनिधित्व की माँग की और अपने अलग हितों की रक्षा के लिए संघर्ष आरंभ कर दिया.
इसी कारण पंजाब में बड़ी संख्या में शूद्र ‘मेघ’ थे इनकी ओर सभी का ध्यान आकर्षित हुआ और पंजाब में मुसलमानों का मुकाबला करने के लिए जहाँ सिंह सभा लहर चली वहाँ आर्यसमाज का गठन किया गया थाइन लहरों का मेघों को बहुत लाभ हुआ खासकर आर्यसमाज का जिन्होंने इनकी शिक्षा की ओर बहुत ही ध्यान दिया और इन्हें प्रोत्साहन प्राप्त हुआ.
मेघों की अनुमानित जनसंख्या कबीरपंथियों सहितजो समुदाय के अभिन्न अंग रहे हैंलगभग 12 लाख हैजिसमें पंजाब में लाखजम्मू-कश्मीर में लाख 25 हज़ार और हिमाचल प्रदेश में लाख 25 हज़ार है और शेष हरियाणादिल्लीजिला अलवरजिला मेरठ आदि में बिखरे हुए हैंभारत सरकार की 1882 की जनसंख्या रिपोर्ट ने अँगरेज़ों को भारत की जनसंख्या के अध्ययन का एक मौका प्रदान किया थाइससे स्पष्ट हुआ कि लाखों लोग जो अछूत कहे गए वे नाम मात्र के हिन्दू थेशूद्र गाँवों के भीतर अलग मुहल्लों में झुग्गियाँ बनाकर रहते थेजबकि अति शूद्र गाँवों की आबादी से बाहर रहा करते थेयह नाम मात्र के हिंदू सेवा कर्मों में लगे हुए थे और भयानक गरीबी में जीवन व्यतीत करते आ रहे थेउन्हें शिक्षा का कोई अधिकार नहीं थाइस स्थिति का लाभ उठाते हुए अंग्रेजों ने ईसाई मिशनरियों को प्रोत्साहित किया कि वे अछूतों को ईसाई बनाएँ. 1889 में आर्यसमाज की स्थापना हुईविभाजन से पहले पंजाब और जम्मू-कश्मीर में भारत के दूसरे भागों की तरह हिन्दू अल्पसंख्यक थे. 1901 में पंजाब में कुल जनसंख्या का 53% गैर-मुसलमान थे जबकि मुसलमान 47% थेपरन्तु 1941 में गैर मुस्लिम 47% रह गए और मुसलमान 53% हो गएपरिणामस्वरूप ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों की चुनौती के मद्देनज़र हिन्दुओं को खतरा था और उन्होंने इसका मुकाबला आर्यसमाज के द्वारा कियायही हालात जम्मू और कश्मीर में थे.
सन् 1900 तक आर्यसमाज ने शुद्धिकरण को विकसित कर लिया थाशुद्धि का अर्थ था हिन्दू-धर्म में पुनः रूपांतरणइसका अर्थ था कि निम्नजातियों के लोगों कोमेघों सहितहिन्दू धर्म में शामिल करनाये अछूत इस्लाम और ईसाई धर्म में शामिल किए गए थे. 1910 में 36000 से अधिक मेघ स्यालकोट के क्षेत्र के शुद्धि द्वारा आर्यसमाजी हो गए थेपरिणाम स्वरूप आर्यसमाज मंदिरों में शामिल होते हुए नौजवान मेघों की एक बहुत बड़ी संख्या प्राथमिक शिक्षा के लिए आर्यसमाज स्कूलों में जाने लगीइसी प्रकार मुस्लिम और सिख भी निम्न जातियों के लोगों को अपने धर्म की ओर आकर्षित करने लगे और उन्हें मदरसोंगुरुद्वारों आदि में शिक्षा प्राप्त करने की आज्ञा दीकुछ परिवारों के सिख होने के अतिरिक्त मुस्लिम और क्रिश्चियन मेघों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफ़ल नहीं हो पाएआर्यसमाज के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सिखों ने गुरु सिंह सभा की स्थापना की ताकि मेघों को सिख धर्म में शामिल किया जा सकेपर उनके ये प्रयत्न बड़े कमज़ोर थेइसका अपेक्षित परिणाम नहीं निकलाकेवल शकरगढ़ और जिला स्यालकोट के गुलबहार क्षेत्र के कुछ गाँवों के लोगों को सिख बनाया जा सका.
सन् 1900 के लैंड एलीनेशन एक्ट के अनुसार कृषि भूमि का अधिकार केवल कृषि करने वाली जातियों तक ही सीमित कर दिया गया थाइस कानून के द्वारा अछूतमेघों सहितकृषि भूमि के अधिकार से वंचित कर दिए गए थेक्योंकि पारम्परिक रूप से वे कृषि से जुड़े हुए नहीं थेवे बनुकर थे और कृषि मजदूर थेयहाँ इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि इस दौरान निम्नजातियों का एक अंदोलन ‘आदि धर्म’ मेघ समुदाय के लोगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सका थाइसका कारण शायद स्यालकोट के एक वकील लाला गंगा राम का प्रयत्न थागंगाराम एक दृढ़ आर्यसमाजी थेउन्होंने 'आर्य मेघ उद्धार सभाका गठन किया था ताकि मेघ लोगों में शिक्षा का प्रसार किया जा सकेउन्होंने जिला मुल्तान के तहसील खानेवाल में पड़ने वाली एक बंजर जमीन को खरीद लिया था और वहाँ उन्होंने आर्य नगर की स्थापना की थीइस जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े मेघ परिवारों में बाँट दिए गए ताकि जमीन को कृषि योग्य बनाया जा सकेयह जमीन का विभाजन 50% फ़सल के हिस्से के आधार पर किया गया थाबाद में इन्होंने जो वहाँ बस गए थे दो तिहाई हिस्सा स्वीकार करा थालाला गंगाराम इस माँग को नहीं मान रहा थाउसके साथ हाथापाई भी की गईआगे चलकर भगत हंसराज के प्रयत्नों से कोर्ट के द्वारा मेघों की मिल्कियत सुरक्षित कर दी गई.
यहाँ यह उल्लेख किया जा सकता है कि दालोवाली गाँव के निवासी भगत हंसराज और ननजवाल गाँव के निवासी जगदीश मित्र 1935 तक आर्यसमाज के प्रयत्नों से ही शिक्षा प्राप्त करते रहे और दोनों कानून के स्नातक थेजैसा कि मेघों का स्वभाव गहरी धार्मिकता से जुड़ा होता था इसलिए लाला गंगाराम उन्हें 'भगतकहा करता था और मेघों ने 'भगतनामकरण को तत्परता से स्वीकार कर लिया था क्योंकि आर्यसमाज आंदोलन से पहले ही अधिकांश मेघ मध्यकालीन संत कबीर आदि के प्रति आस्था पैदा कर चुके थेजिन्हें भारतीय समाज 'भगतकहता आ रहा था.
भगत जगदीश मित्र ज्यादा समय जीवित नहीं रहे जबकि भगत हंसराज स्यालकोट में अपनी वकालत करते रहे और विभाजन के बाद दिल्ली में बस गएयहाँ 1966 में उनका देहांत हो गयाभगत हंसराज आदि धर्म आंदोलन के प्रति आकर्षित थे और उन्होंने आदि धर्म की एक महिला के साथ विवाह किया हुआ थाआर्यसमाज को यह बात पसंद नहीं आई थी इस कारण भगत हंसराज के आर्यसमाजी मित्र विवाह के समारोह में शामिल नहीं हुए थे विशेष रूप से इस तर्क के आधार पर कि मेघ एक अपेक्षाकृत ऊँची जाति के लोग होते हैंआदि धर्मियों के साथ उनका रक्त का संबंध नहीं हैभगत हंसराज डॉक्टर अंम्बेडकर के विचारों से बहुत प्रभावित थेयह बात आर्यसमाज के अनुकूल नहीं थीअंबेडकर के विचारों के अनुसार भगत हंसराज चाहते थे कि दलित लोग जाति व्यवस्था से ऊपर उठेंउनकी अपनी जिंदगी इसका एक उदाहरण थी.
जम्मू और कश्मीर में मेघों का व्यवसाय और सामाजिक दर्जा पंजाब की तरह का ही था और वे अछूत ही बनाए रखे गएराजपूत और ब्राह्मण इनका शोषण करते रहेमहाराजा प्रताप सिंह के शासन काल में राजपूतों और ब्राह्मणों का शासन पर पूरा नियंत्रण थायही मेघ अपनी प्राचीन पूजा पद्धतियों में लगे रहे और साथ ही निम्नजातियों के गुरु संत कबीर के प्रति भी अपना झुकाव बनाए रहेजम्मू क्षेत्र के आर्यसमाजी आंदोलन के दौरान स्वामी नित्यानन्द ने शुद्धि का भरपूर प्रचार-प्रसार कियाउन्हें महाराजा प्रताप सिंह के पुत्र महाराजा हरिसिंह का विश्वास प्राप्त थालाला रामचंद्र नाम के एक आर्यसमाजी कार्यकर्ता को बेरहमी से कत्ल कर दिया गया थावह शुद्धि समारोह को संपन्न किया करता था और ऊँची जाति के हिन्दुओं पर दबाव डालता था कि वे गाँव के कुओं से मेघों को पानी भरने देंमहाराजा हरिसिंह आधुनिक विचारों के व्यक्ति थेउन्होंने विदेश से शिक्षा प्राप्त की थी और वे न्यायमूर्ति मेहर चन्द महाजन से बहुत प्रभावित थेमेहरचंद महाजन उनके शासन काल के दौरान जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री रहे थेउन्होंने मेघों सहित अछूत लोगों को जम्मू के प्रसिद्ध मंदिर रघुनाथ मंदिर में प्रवेश दिलाया थाजब पंडित देवराज मंदिर के मुख्य पुजारी ने इसका विरोध किया तो महाराजा ने तुरंत उसे हटा दिया और उसके भाई को पुजारी नियुक्त कर दिया जो महाराजा हरिसिंह के विचारों से सहमत थामहाराजा हरिसिंह ने अनुसूचित जातियों के लिए निःशुल्क शिक्षा का प्रबंध किया और उन्हें वजीफ़े दिए गएचुनाव और मनोनयन द्वारा उन्होंने प्रजा परिषद में अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व स्वीकार कियादो मेघ महानुभाव श्री जगत राम आर्य और राम रक्खा प्रजा परिषद के पहले सदस्य मनोनीत किए गएमेघों को सेना में भर्ती किया जाने लगाफिर भी शिक्षा के अभाव के कारण सरकारी नौकरियों में अछूतों का प्रतिनिधित्व बहुत कम रहामहाराजा हरि सिंह इस पक्ष में था कि खेती करने वाला ही जमीन का मालिक होना चाहिएआगे जाकर जब शेख अब्दुल्ला ने भूमि सुधार लागू किए तो 1971 के माल गोदावरी के आधार पर मेघ लोगों को उन ज़मीनों का मालिकाना हक प्राप्त हो गया जिस पर वे खेती करते थे.
स्यालकोट की आर्य मेघ उद्धार सभा की तरह एक संस्था मेघ मंडल स्थापित की गईइसके संरक्षक भगत छज्जूराम थेइस सभा का उद्देश्य आर्यसमाज का प्रचार करना थामेघ मंडल की स्थापना 1930 के आसपास हुई थीइस सभा ने आजादी से पहले और आजादी के बाद आर्यसमाज का बहुत प्रचार किया पर 20वीं शताब्दी के अंत तक आर्यसमाज आंदोलन का पतन हो गया थाइसका मुख्य कारण यह था कि आर्यसमाज हिंदू धर्म में समानता के विचारों को स्थापित करने में सफल नहीं हो सकता थापरिणामस्वरूप जम्मू प्रांत के बहुसंख्यक मेघ समुदाय के लोग संत कबीर के विचारों से प्रभावित होने लगे थे.
1940 में मेघ मंडल से ही हरिजन मंडल बनाया गया था जो मेघों का ही थास्यालकोट और साथ लगते ज़िले गुजरात और गुरदासपुर के कुल मिलाकर मेघों की जनसंख्या लाख के करीब थी.
स्यालकोट के आर्यसमाज ने बड़ी हिचकिचाहट के बाद अंत में 14-03-1903 को दलितों के उद्धार का बीड़ा उठा लिया थाइसलिए 21-04-1912 को आर्य मेघ उद्धार सभा का गठन किया गया और 13-06-1912 को चेरीटेबल सोसाइटी एक्ट XXI, ऑफ़ 1860 के अंतर्गत इस सभा को पंजीकृत किया गया.
इस बात को सोचते हुए कि दलितों का उद्धार उनके आर्थिक उत्थान के बिना नहीं हो सकताजून 1930 में आर्यसमाज मंदिरों में मेघ लड़कों के लिए एक औद्योगिक स्कूल को शुरू किया गयाइसमें धार्मिक और प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ बुनकरसिलाई और तरखान (बढ़ईके धंधे की शिक्षा दी जाती थीअगस्त 1910 में मंदिर के सामने रू.992/-(नौ सौ बानवे रुपएमें एक छोटा स्थल खरीदा गया और दो साल बाद इसके साथ ही एक बड़ा स्थान रू.5,000/-(पाँच हजार रुपएमें खरीद लियाकर्नल एफ़ औफम यंगडिप्टी कमिश्नर ने इस स्कूल का नींव पत्थर रखा. 1910 तक लगभग 36000 मेघ स्यालकोट से आर्यसमाज में शामिल किए गए थे.
इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि उस दौर में केवल आर्यसमाज ही शूद्रों के उद्धार के लिए प्रयत्न नहीं कर रहा था बल्कि ईसाई मिशनरी और सिख भी इस दिशा में प्रभावशाली काम कर रहे थेसन् 1900 में खुलेआम निम्नजाति के सिखों के केश काट देने पर उनकी शुद्धि के प्रयत्नों की प्रतिक्रिया में सिख आर्यसमाज से अलग हो गए थे.
1947 में जब पाकिस्तान बन गया पंजाब में अपनी गवर्नमेंट बन गईश्री गोपीचन्द भार्गव मुख्यमंत्री थे उस समय अनुसूचित जातियों की सूची का पुनर्निरीक्षण किया गया तो उसमें मेघ जाति को इस सूची से निकाल दिया गयाउस समय श्री मिल्खीराम भगत सचिवालय में काम करते थेउन्हें पता लगाउन्होंने अपने नेता इकट्ठे किए और संघर्ष करते हुए अनुसूचित जातियों में शमूलियत करवा ली गई.
लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि जो कबीरपंथी स्यालकोट या पाकिस्तानी पंजाब से इस पूर्वी पंजाब में आए थे उन्होंने बहुत ही बुरे दिन देखे हैंकई-कई दिन भूखे काटने पड़ेइनको रिफ्यूजी कैंपों में बैठा दिया गया थाइन्हें खाली जगह पर टैंट लगा कर रखा गया थाकुछ लोग घास आदि काट करबेच कर अपना निर्वाह आदि करते रहे हैं.
चाहे ये लोग हरियाणाराजस्थानहिमाचल आदि में बसे हैं लेकिन पहले पंजाब में ही आए थेवहाँ से जो स्थान ठीक लगाजहाँ रिश्तेदार थे वहीं की ओर चले गए.
पंजाब में पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों ने एक कमेटी बनाई थी ताकि इन लोगों को जो बेज़मीने हैंजमीन दी जाए या मदद की जाएयह प्रस्ताव किया गया कि रू.1,000/-(एक हजार रुपएप्रति परिवार को दिया जाए लेकिन उन्होंने 1000 नकद की बजाए रजिस्ट्रेशन फ़ीस लेकर उसे जहाँ है बैठा दियाउनके नाम जगह अलाट कर दी गई.
पंजाब में पैप्सू की सरकार के दौर में पंजाब में 1956 में एक सोसाइटी एक्ट बना जिसमें पैप्सू में पड़ी हुई नजूललैंड बाँटी जानी थीयह जमीन सिर्फ दलित लोगों में ही बाँटी जानी थीकोई भी पाँच आदमी सोसाइटी बनाकर रजिस्टर करवा सकते थेबाद में सोसाइटी को 1957 में उस जमीन की कुछ कीमत लगाकर यह फ़ीस दो सौ प्रति एकड़ या मालिए का 90 गुना जो दोनों में से कम होगा जमा करवाना होगाजमा करवाने के बाद सोसाइटी के नाम से प्रति मेंबर को नौ एकड़ जमीन मिली थीजिसमें मेघ लोगों को बहुत फ़ायदा हुआये लोग मुजारों से छोटे किसान बन गए थे.
पंजाब के कबीर पंथी अधिकांशतः मेघ कबीले से ही संबंधित हैं और अब रुझान इस तरफ भी है कि मेघ के रूप में अपनी पहचान बनाई जाएजनगणना में भी कुछ लोग जाति के स्थान पर मेघ लिखने लगे हैंनिम्नजाति के प्रमाण-पत्र पर भी ‘मेघ’ लिखा जाने लगा है और कबीरपंथी भीअनुसूचित जाति की सूची में कबीरपंथी भी हैं और मेघ भी हैंइस प्रकार पंजाब के कबीरपंथी मेघ समुदाय से संबंधित हैं. ‘मेघ’ पत्रिका चंडीगढ़ से निकाली जा रही हैमेघ जनजाति के उद्भव पर कुछ लोगों ने शोधपरक काम भी किए हैंइन लेखकों का प्रयत्न यह होता है कि किसी प्रकार सिद्ध किया जा सके कि मेघ कबीला बहुत प्राचीन था और किसी समय ये लोग राजसत्ता में थे और आगे जाकर यह विरासत छोड़ कर अछूतों के रूप में जीवन यापन करने लगे.
अनेक मेघ सभाएँ बनी हुई हैं जैसे 'मेघ सभा', लुधियानाचन्डीगढ़अमृतसर में हैंपंजाब के मेघ समुदाय के कबीरपंथी लोग विभाजन के बाद स्यालकोट क्षेत्र से उजड़ कर शरणार्थी के रूप में पंजाब में बसे हुए हैंइन लोगों की अधिकाँश जनसंख्या अमृतसर के सूती कपड़े के कारखानों में नौकरी करती है और अमृतसर के ढपईछोटा हरिपुरा आदि क्षेत्र में रह रहे हैंस्यालकोट से आए हुए लोगों की दूसरी बड़ी संख्या जालंधर के भार्गव कैंप में बसी हुई हैये लोग ज़्यादातर खेलों का समान बनाने वाले कारखानों में काम करते हैंपिछले दो दशकों में जालंधर में डी..वीकॉलेज के पास 'कबीर नगरनाम का मोहल्ला बस गया हैयहाँ अधिकांश कबीरपंथी रहते हैंइसी प्रकार जालंधर में ही गाँधी कैम्पबस्ती बावा खेलबस्ती दानिशमंदांतिलक नगरआर्य नगरबस्ती नौराम नगर आदि क्षेत्रों में बड़ी संख्या में कबीरपंथी रहते हैं.
इस प्रकार अमृतसर में मजीठाहरिपुराछोटाबड़ावेरकामजीठाऊँचे तुगकबीर विहारफतेहगढ़ चूड़ियाँबटालागुरदासपुर आदि क्षेत्रों में बड़ी संख्या में कबीरपंथी रहते हैं.
लुधियाना में जवाहर नगरधुस मुहल्लालेबर कालोनीगन्दा नाला का क्षेत्रशिवपुरीशिमला पुरी और जनक पुरी आदि क्षेत्रों में भी बड़ी संख्या में कबीरपंथी रहते हैंइसी तरह कपूरथला में भी फ़ैजलाबादनूरपुर मैनवातलवंडी महैमाबौली आदि गाँव में भी बड़ी संख्या में कबीरपंथी लोग रहते हैं.
कबीरपंथियों में हिन्दू और सिख दो वर्गीकरण बहुत सतही हैंअनेक परिवार मिश्रित हैंकुछ केशधारी हैं और अन्य मोनेसिख और हिन्दू परिवारों में परस्पर शादियाँ आम बात हैइसमें कोई संदेह नहीं कि केशधारी कबीरपंथी गुरुद्वारे से भी जुड़े हैं और मोने कबीरपंथी पहले आर्यसमाज मंदिर के साथ संबंधित थेआगे जाकर आर्यसमाजी मंदिरों का पतन होने के बाद अब इन्होंने एक नए रूप में कबीरपंथी मंदिरों का सिलसिला शुरू किया है.
ध्यान देने की बात है कि पंजाब में धीरे-धीरे केशधारी कबीरपंथी कम होते जा रहे हैंसिख नौजवान लड़के बाल कटवा रहे हैंबाल कटाने के बाद उनका गुरुद्वारों से संबंध कटता गया है और वे भी नए फ़ैशन के मंदिरों के गठन में अपना योगदान दे रहे हैंकुछ क्षेत्रों मेंजैसे कि अमृतसर के हरिपुरा के कबीरपंथीअम्बेडकर की ओर झुकने लगे हैं और उनकी इच्छा है कि एक दलित साझा मोर्चा गठित होइन क्षेत्रों में कबीरपंथी जब आर्यसमाज के समारोह में शामिल होते हैं तो ये लोग क्षुब्ध हो उठते हैंअमृतसर के इन्हीं क्षेत्रों में एक बड़ी संख्या में कबीरपंथी हैं जो कम्युनिस्ट पार्टी में रुचि लेने लगे हैं.
जालंधर के भार्गव कैंप के कबीरपंथी आर्यसमाज के प्रभाव के कारण भारतीय जनता पार्टी के साथ जुड़े हुए हैंजालंधर के श्रमिक कबीरपंथियों में कम्युनिस्ट पार्टियों ने कोई काम नहीं कियाशायद इसका कारण यह है कि लोग किसी एक ट्रेड यूनियन का हिस्सा नहीं रहे हैंजालंधर के कबीरपंथी खेलों का सामान बनाने वाली इकाइयों में काम कर रहे हैंकुछ लोगों ने स्वतंत्र रूप में अपनी खुद की यूनिट लगा ली हैपर ये कबीरपंथी या तो श्रमिक हैं या निम्नवर्ग के स्तर तक सीमित हैंकुछ कबीरपंथी बड़े-बड़े पदों पर भी काम कर रहे हैं.
लेकिन देखने में यह भी आया है कि अधिकतर कबीरपंथी या मेघ कांग्रेस को ही वोट देते हैंगाँव में कुछ लोग अकाली धड़ों को भी वोट देते हैंभारत की स्वतंत्रता के पश्चात पिछड़ी हुई और पद दलित जातियों को शिक्षा के क्षेत्र में ऐसी सुविधाएँ दी गईं जिनके कारण इस समाज के लोगों को भी शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति करने का शुभ अवसर मिलानिःशुल्क शिक्षा और छात्रवृत्तियों का सदुपयोग करते हुए इस समाज के अनेक छात्र ऊंची शिक्षा प्राप्त कर जाति के स्वाभिमान को ऊँचा उठाने और राष्ट्र निर्माण कार्यों में अनेक जिम्मेदारी के पदों पर पहुँच कर जाति और समाज की उन्नति में समान भागीदार बन रहे हैं.
साक्षात्कारों से पता चला है कि अभी भी पाकिस्तान में रतिया सैदा गाँव जो स्यालकोट में हैवहाँ 200 के करीब मेघ कबीरपंथी लोगों के घर हैं जो बँटवारे के समय इधर नहीं आएइनमें से लगभग पाँच मुस्लिम भी हो चुके हैंजो लोग बिखर कर अकेला-अकेला परिवार पाकिस्तान में रह गया वे मुसलमान हो गए हैंउनकी रिश्तेदारियाँ अभी भी जम्मू व पंजाब में हैं.
ये लोग एक दूसरे से संपर्क बनाए हुए हैंइन लोगों का कहना है कि इनके पूर्वज भी जम्मू से ही आए थेये लोग पाकिस्तान में अभी भी मेघ या कबीरपंथी कहलाते हैंभगत भी कहलाते हैंकुछ पाकिस्तानी कबीरपंथियों के साक्षात्कारों से यह पता चला है कि ये लोग अभी हिन्दू कहलाते हैंआर्थिकता इधर जैसी ही हैग़रीबी ही हैउन्होंने बताया कि पास ही में एक शिया गाँव हैवहाँ 20 घर भगतों के हैंअभी भी आर्यसमाज की रस्में होती हैं तथा वेदों से विवाह आदि सम्पन्न किया जाता हैपहले लोग बहुत ही गरीब थेबंधुवा मजदूर थे लेकिन अब हालात बदल रह गए हैंअपनी बिरादरी का आदमी ही विवाह आदि की रस्में कराता हैलेकिन ये लोग पाकिस्तान छोड़ कर आना चाहते हैं क्योंकि इनकी ज्यादातर रिश्तेदारियाँ भारत में हैंवहाँ इनके लड़कों का विवाह नहीं हो पा रहा हैकुछ लोगों की लड़कियों के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती भी हो जाती हैइनकी जो वहाँ संपत्ति है ये उसमें कानूनी तौर पर रह सकते हैं मगर बेच नहीं सकतेपाकिस्तान में अभी भी बिरादरी के हिसाब से राजनीतिक सीटें सुरक्षित हैंउन्होंने यह बताया कि पाकिस्तान में अभी भी कुल मिलाकर 50000 के करीब मेघ आबादी होगी लेकिन इसके बारे में ये कोई प्रमाण नहीं दे सके हैं.
ध्यान योग्य बात यह है कि देश के बंटवारे के समय 40000 मेघ परिवार वापिस जम्मू में जा बसेइन सभी की रिश्तेदारियाँ जम्मू में ही थींये लोग जम्मू से ही स्यालकोट या पंजाब के अन्य भागों में गए थेलेकिन इन मेघ परिवारों को आज भी जम्मू में शरणार्थी ही कहा जाता हैइनको वहाँ का आवास नहीं मिला हैउन्हें दूसरे लोगों जैसे हकहकूक नहीं मिले हैं भले ही उनके पुरखे जम्मू से ही स्यालकोट या पंजाब के अन्य भागों में आए थे जिसका इन्होंने प्रमाण भी ढूँढ लिया हैये लोग रिफ्यूजी कमेटी रजिस्टर करवा कर संघर्ष कर रहे हैंजम्मू में इन लोगों को 1947 के बाद कस्टोडियन एक्ट के तहत जमीन मिली तथा 1952 में लैंड रिफ़ॉर्मेशन एक्ट के तहत लाभ हुआ और मुजारा किसान जमीनों के मालिक हो गएजिनके पास 182 कनाल से अधिक भूमि थीछीन ली गई, 1954 में दलितों को जमीनें अलॉट होनी शुरू हुईं तथा 'कारे बेगार कानून' 1956 में खत्म हुआ और जो ज़मीन मुसलमान छोड़कर 1947 में पाकिस्तान चले गए थे वह ज़मीन इन मुजार लोगों में बाँट दी गई है. 1956 में इन लोगों को जम्मू में दलित जातियों की लिस्ट में लिया गया हैये 1960 के बाद सेना में भर्ती हुए हैंनौकरी में आरक्षण 1970 में मिलना शुरू हुआजम्मू में छः सदस्यों के परिवार को 32 कनाल जमीन मिलीबाकी छः कनाल प्रति सदस्य को जमीन मिलीछः सदस्य से ऊपर कम से कम दो घुमाह जमीन मिलीआम आदमी के 182 कनाल जमीन से कम करके 72 कनाल कर दी गईजम्मू में बंटवारे के समय 56 मुस्लिम गाँव पाकिस्तान चले गए थेउनकी ज़मीन भी दलितों में बाँट दी गईइस तरह से ये कबीरपंथी लोग बड़ी संख्या में जम्मू में रहते हैं तथा आधी से अधिक आबादी दलितों में इनकी है.
पिछले 200 वर्षों का इतिहास बताता है कि मेघ अधिकतर रावी और चिनाब नदियों के बीच में स्यालकोट जिले में रहा करते थे और साथ ही गुरदासपुर के कुछ भागों मेंजम्मू प्रांत मेंहिमाचल प्रदेश के चम्बा और कांगड़ा में भी रहते थेमुगल काल में जिला अनन्तनाग में रहने वाले कुछ परिवार मुसलमान हो गए बताए जाते हैंवे धीरे-धीरे गरीबबेगारी और अकाल के कारण स्यालकोटजम्मूछंबराजौरीपुंछ आदि इलाकों में 19वीं शताब्दी में चले गए थेयहाँ यह भी जोड़ा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर के प्रारम्भिक डोगरा राजाओं के शासनकाल में भी बेगारी के कारण भीषण शोषण ने भी उन्हें स्थान बदलने के लिए मजबूर किया होगा.
आजादी के बाद मेघ स्यालकोट आदि क्षेत्र में रहा करते थेवे पंजाबहिमाचल प्रदेशहरियाणामेरठअलवर आदि की ओर चले गए. 2000 से 2500 मेघ परिवार जिला अलवर में बसाए गएयहाँ उनके परिवार के आकार के अनुसार कृषि भूमि के छोटे-छोटे क्षेत्र अलॉट किए गएकेन्द्रीय सरकार के पुनर्वास विभाग से ज़मीन अलॉट करवाने के लिए इन परिवारों का नेतृत्व अप्रवासी मेघों के तब के नेता भगत हंसराज एडवोकेटभगत गोपीचन्द और भगत बुड्ढा मल कर रहे थेपरन्तु वहाँ के मेघों की जाति सरकारी अभिलेखों में जाट लिखी गई हैजबकि वैवाहिक उद्देश्य और सामाजिक संबंधों के लिए वे भारत के दूसरे क्षेत्रों में रहने वाले मेघों के साथ ही जुड़े हुए हैंपंजाब में वे अधिकतर ज़िला जालंधरअमृतसरगुरदासपुरलुधियाना और चंडीगढ़कपूरथला में केंद्रित है.
व्यवसाय के तौर पर वे ज़्यादातर बुनकरकृषि श्रमिकखेलोंसर्जिकलधातु कर्म और कुछ अन्य उद्योगों में श्रमिक के तौर पर काम करते आ रहे हैंजम्मू प्रांत में जम्मू-कश्मीर सरकार के भूमि सुधारों के लागू होने पर उनमें से बहुत से छोटे कृषक बन गए हैंजैसा कि काहन सिंह बलोरिया ने (तारीखे राजगण जम्मू व कश्मीरमें लिखा है कि उनमें से कुछ निम्नजातियों के पुजारी हुआ करते थेनरसिंह देव एक पत्रकार-इतिहासकार ने अपनी पुस्तक ‘डूगर देश’ में इसी बात का समर्थन किया हैजबकि पीढ़ी दर पीढ़ी इस प्रौहित्य के लिए उनके पास शिक्षा का नितांत अभाव थाजम्मू यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर हरिओम शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ जे एंड के’ में इस बात का समर्थन किया है. 20वीं शताब्दी के दूसरे अर्धांश के दौरान ऊँची शिक्षा के प्रसार द्वारा इस समुदाय का एक छोटा हिस्सा सरकारी नौकरियों में नियुक्त हो गया था और उनमें से कुछ सरकार की आरक्षण नीति के कारण आई..एसआई.पी.एस., चिकित्सकइंजीनियरबैंक प्रबंधककेन्द्रीय और राज्य सरकारों के प्रथम श्रेणी के ऊँचे पदों पर पहुँच गए हैं.


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