छठा
अध्याय
6.0 सामाजिक
गठन- रिश्तेदारी
प्रबन्ध
6.1 विवाह
सम्बन्धी रीति रिवाज
6.2
विवाह
अवसर से सम्बन्धित लोकगीत
6.3
धर्मिक
व सामाजिक रीति-रिवाज
6.4 रूप
रंग, स्वभाव,
वस्त्र,
मनोरंजन
तथा खान-पान
6.5 व्यवसाय
6.6 भाषा,
बोली
6.7 सांस्कृतिक
बदलाव
पंजाब
के कबीर पंथियों का सामाजिक
गठन
रिश्तेदारी-प्रबन्ध
प्रत्येक
समाज की बनावट उसके नातेदारी
प्रबन्ध पर गठित (बनी)
होती
है। समाज नातेदारों का संगठित
समूह होता है। प्रत्येक सामाजिक
ढाँचा अपने अस्तित्व को बनाए
रखने के लिए कुछ निश्चित
प्रतिबंध स्थापित करता है।
यह प्रतिबंध मनुष्य के मनमानी
करने तथा सामाजिक अराजकता को
नियंत्रण में रखता है क्योंकि
सामाजिक नियम सामाजिक आवश्यकताओं
को देखकर बने होते हैं। इसलिए
विभिन्न समाजों में इन नियमों
के प्रति दृष्टिकोण विभिन्न
होता है। उत्पत्ति मूलक
सम्बन्धों की विधि-विज्ञान
योजना से परिवार नाम की संस्था
बनी है। आनुवंशिकी सम्बन्धों
वाले मर्द तथा औरत,
पती-पत्नी
के रूप में संतान उत्पन्न करके
सामाजिक संस्थागत परिवार को
जन्म देते हैं। परिवार का यह
प्रारम्भिक स्वरूप प्रत्येक
समाज में होता है। स्त्री तथा
पुरुष के अपने मां-बाप,
बहन-भाई
तथा अन्य सम्बन्धी जो कि एक
ही पूर्वज की संतान होते हैं,
इस
परिवार से आन्तरिक क्रिया
में आते हैं। इसी पर आधारित
समाज में रिश्तेदारी प्रबन्ध
अस्तित्व में आता है। आरम्भिक
परिवार के सम्बन्धों में फैलाव
के बढ़ने से ही रिश्ता-नाता
प्रणाली में जटिलता आती जाती
है।
मानव
समाज के इस बिखराव के संतुलन
को कायम रखने के लिए दो मुख्य
बातों को निश्चित किया गया
है। इनमें से एक को टोटम तथा
दूसरी को टैबू का नाम दिया गया
है। टैबू से भाव वर्जनाएं हैं।
समाज में टैबू की बात कुटुम्ब
सम्भोग की वर्जनाओं से आरम्भ
होती है। इस आधर पर ही मानव
सामाज में विवाह की रस्म
अस्तित्व में आती है। इस मर्यादा
के कुछ नियम होते हैं। मानव
समाज में स्त्रियों का आदान-प्रदान
इसी नियम के अनुसार होता है।
मानव जीवन में पारिवारिक बंधन
तथा विभिन्न परिवारों में
आपसी आदान-प्रदान
स्त्रियों के आदान-प्रदान
से ही आरम्भ होता है। किसी
परिवार की बेटी-बहन
किसी अन्य परिवार में देने
से परिवारों में सम्बन्ध
स्थापित होता है। रिश्ता-नाता
प्रबंध पर चर्चा करते हुए डॉ.
जसविन्द
सिंह लिखते हैं,
रिश्तानाता
प्रबन्ध का आधार मनुष्य की
नातेदारी ही है। इस रिश्ता
प्रबन्ध में मनुष्य द्वारा
बनाए गए वे रिश्ते आ जाते हैं
जो उसने विशेष सामाजिक संगठन
में रहते हुए अपने रक्त की
सांझ से जाति,
गोत्र,
वंश
आदि के साथ-साथ
सामाजिक अस्तित्व तथा मनुष्य
जीवन के अनुकूल निश्चित
सम्बन्धों के लिए सामूहिक
सामाजिक मंजूरी द्वारा बनाये
होते हैं।
रिश्ता-नाता
प्रबन्ध के संकल्प की व्याख्या
अनेक मानव विज्ञानियों ने भी
की है। वे रिश्ता-नाता
प्रबन्ध की अवधारणा को मनुष्य
के सामाजिक अस्तित्व में उस
द्वारा बनाए गए रिश्तों को
प्रगट करने वाला मानते हैं।
यह रिश्ते मुख्य रूप में
प्राकृतिक, जीव
वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक
आधारों पर बनाए तथा स्वीकार
किए जाते हैं। लेसिल ऐ.
वाईट
के शब्दों में रिश्ता-नाता
एक तकनीकी शब्द है जो पति-पत्नी,
मां-बाप,
बच्चे
तथा बच्चों के भीतर सम्बन्धों
में उत्पन्न हुए सामाजिक
रिश्ते को विशेष नाम प्रदान
करता है।
रिश्ताप्रबंध
का संगठन करने वाले अंगों में
सबसे प्रथम तथा महत्त्वपूर्ण
अंग परिवार है। परिवार सभी
सांस्कृतिक रिश्तों को बनाने
में मुख्य भूमिका निभाता है।
परिवार से अभिप्राय है कि एक
ऐसी इकाई या संस्थान जिसमें
कुछ व्यक्ति सामाजिक प्रतिबंधों
के अनुसार मिलजुल कर जीवन
व्यतीत करने के लिए सांस्कृतिक
तौर पर प्रमाणित होते हैं।
मुख्यतः परिवार में आठ प्रकार
के नाते मिलते हैं। जैसे
पति-पत्नी,
बाप-बेटी
मां-बेटी,
बाप-बेटा,
मां-बेटा,
भाई-भाई,
बहन-भाई
बहन-बहन
का रिश्ता मुख्यतः है। अन्य
सभी नातेदारियां इनके आधार
पर बनती हैं!
परिवार
का मुख्य ढांचा परिवार में
सम्भोग वर्जनाओं पर आधरित
होता है। प्रत्येक रिश्तेदार
हर सुख-दुख
में शामिल होता है। वह अपना
कर्त्तव्य तथा जिम्मेदारियां
पूरी तरह वफ़ादारी से निभाता
है।
परिवार
की इकाईयों को बनाने का कार्य
विवाह प्रबंध द्वारा किया
जाता है। रिश्तानाता प्रबंध
के दो मुख्य आधार माने जाते
हैं : नानके
तथा दादके (ननिहाल-ददिहाल)।
नानकों तथा दादकों की अपनी-अपनी
भूमिका होती है। नानके मां
के परिवार से सम्बन्ध रखते
हैं तथा दादके पिता के परिवार
से। एक व्यक्ति एक समय पिता,
बेटा,
मामा,
ससुर,
साला,
दामाद
आदि अनेक रिश्तों में बंधा
हुआ होता है।
रिश्तानाता
प्रबन्ध विकास के साथ परिवर्तित
होता आया है।
यह
मूलतः मानवी रिश्तानाता
परम्परा पर आधरित होता है।
इसमें परिवर्तन साधारण सामाजिक
परिवर्तनों के बिल्कुल समानांतर
नहीं आता। लेकिन इसके बावजूद
भी साक-सम्बन्ध
परम्परा पूर्ण सामाजिक संगठन
में होते परिवर्तनों के द्वारा
परिवर्तित होती रहती है। समाज
का विकास प्रमाणित करता है
कि आर्थिक विकास के साथ मनुष्य
व्यवहार की प्रचलित मर्यादा
अनुसार सभी मनुष्य रिश्तों
में परिवर्तन होता आया है।
उदाहरण के लिए सामुदायिक
विवाह, बहुपति
और बहुपत्नीवाद,
एक
पति एक पत्नीवाद आदि। विभिन्न
विवाह-प्रबन्ध
के अनुकूल सभी प्रकार के
रिश्ते-नाते
प्रबन्ध में परिवर्तन आता
रहा है। विशेष सामाजिक इतिहासिक
काल खण्ड की संस्कृति के अनुसार
नये रिश्ते बनाये जाते रहे
हैं तथा प्राचीन नया रूप लेते
रहे या अलोप होते रहे हैं।
रिश्तानाता
प्रबंध का अस्तित्व किसी विशेष
संस्कृति में बुनियादी मनुष्य
के रिश्ते तो होते हैं परन्तु
उनकी भूमिका और महत्ता एक जैसी
नहीं होती। विभिन्न संस्कृतियों
में विभिन्न रिश्ते होते हैं।
यह अलगाव विभिन्न सभ्याचारों
के रिश्तानाता प्रबन्ध की
नामावली से सम्बन्धित है।
विभिन्न संस्कृतियों में
प्रत्येक रिश्ते को प्रगट
करने के लिए आवश्यक नहीं कि
एक जैसे शब्द भी हों। कुछ
संस्कृतियों में अलग-अलग
रिश्तों को बुलाने के लिए
विभिन्न नाम होते हैं। जैसे
पंजाबी संस्कृति में मामा-मामी,
मौसी-मौसा,
चाचा-चाची,
ताऊ-तायी,
भुआ-फुफड़
आदि, परन्तु
अंग्रेज़ी भाषा में इन रिश्तों
के लिए दो ही शब्द हैं अंकल
तथा आंटी।
रिश्तानाता
प्रबंध को रिश्तों की बनावट
प्रक्रिया में कार्यशील तत्वों
के आधार पर प्राकृतिक जीव
विज्ञान सांस्कृतिक भागों
में बांटा जाता है। जीव विज्ञान
रिश्ते वह हैं जिनमें खून या
और निकटवर्ती सांझ या रिश्तेदारी
शामिल होती है। जैसे मां-बेटा
आदि। सांस्कृतिक रिश्ते ऐसे
हैं जो मनुष्य के सांस्कृतिक
विकास के समय सामाजिक बनावट
को विशेष पैटर्न में बनाते
हुए सामाजिक मनुष्य की विभिन्न
आवश्यकताओं के अनुकूल मनुष्यों
के सम्बन्धों को एक निश्चित
नाम, पदवी
तथा स्थान प्रस्तुत करते हुए
बनाये जाते हैं,
जैसे
पति-पत्नी,
सास-ससुर,
वधू-दामाद,
मामा-मामी,
भांजा-भांजी,
चाचा-चाची,
ताया-तायी,
भुआ-फूफा,
भतीजा-भतीजी,
साला-साली
आदि। इन रिश्तों की पहचान
नामकरण तथा स्थान किसी विशेष
संस्कृति के रिश्तानाता प्रबंध
के स्वरूप पर अधिक आधारित होता
है। इन रिश्तों के अतिरिक्त
कुछ बनावटी रिश्ते भी होते
हैं। यह व्यक्तिगत तौर पर
स्वीकारे जाते हैं। जैसे
मुँहबोल बेटा,
बेटी
तथा धर्म का भाई और बहन आदि।
कुछ रिश्ते सौतेले रिश्ते भी
होते हैं जिनका सीधा सम्बन्ध
नहीं होता लेकिन किसी तृतीय
पक्ष के कारण रिश्ता अपना
अस्तित्व स्वीकार करता है।
जैसे सौतेला बेटा और बेटी,
सौतेला
भाई व बहन आदि।
विवाह
एक ऐसा परिवर्तन है जिससे कुछ
नये रिश्ते बनते हैं। विवाह
प्रबन्ध पर चर्चा करने से पहले
रिश्तेदारी प्रबन्ध पर विचार
विमर्श करना आवश्यक है। हम
देखेंगे कि कौन से रिश्ते हैं
जो नये सृजित होते हैं। कबीरपंथी
परिवारों के अन्दरूनी रिश्ते
जैसे बाप, मां,
बेटा,
भाई,
बहन
आदि केवल भूमिका ही नहीं निभाते
बल्कि संयुक्त परिवारों का
अस्तित्व रखते हैं।
आधुनिक
समय के मशीनीकरण तथा शहरीकरण
से मध्यवर्ग का अस्तित्व
स्थापित होने से मानवी रिश्तों
के बंधनों में टूट-फूट
हुई है। लेकिन कबीर पंथी लोगों
में इस तरह की प्रवृत्ति बहुत
कम देखने को मिलती है। इन लोगों
का अभी भी संयुक्त परिवारों
में रहने के कारण रिश्तों में
आपसी प्यार है। लेकिन अब इन
लोगों में भी अलग-अलग
रहने की प्रवृत्ति दिखाई देने
लगी है। इसका कारण इनके ऊपर
आधुनिकता का प्रभाव है। यह
लोग पढ़-लिख
गए हैं और पढ़ रहे हैं तथा ऊँचे
पदों पर आसीन है। इनके रिश्तों
में आपसी प्यार का कारण यह है
कि यह बहुत समय समूह के रूप
में घूमते रहे। जिस कारण इनका
इकट्ठे रहना आवश्यक था। इस
कारण इनके रिश्तों में परस्पर
प्यार अपेक्षाकृत अधिक है।
कबीर
पंथी कबीले के रिश्तेदारी
प्रबंध पर विचार करने के लिए
इनके रिश्तों के व्यावहारिक
रूप व बनावट पर ध्यान केन्द्रित
करना होगा। इनके व्यवहार में
विभिन्नता पीढ़ियों के अनुसार
चलती है। एक व्यक्ति से लगभग
ऐसा व्यवहार करने की आशा की
जाती है, जिसमें
पहले बड़े पीढ़ी के सभी
रिश्तेदारों के प्रति सम्मानपूर्ण
प्रतिष्ठा हो। व्यवहार के
ऊपर प्रतिबंध लगाए जाते हैं,
जिनके
द्वारा कुछ दूरी को कायम रखा
जाता है। वास्तव में दोनों
पीढि़यों में ऊपर की ओर सत्कार
तथा नीचे की ओर दास भाव का
सम्बन्ध देखने में आता है।
कबीर पंथियों के रिश्तेदारी
प्रबंध में भी नानके तथा दादके
अपनी भूमिका निभाते हैं। पिता
के वंश से सम्बन्धित दादके
तथा मां के वंश से सम्बन्धीत
नानके की भूमिका निभाते हैं।
लेकिन व्यक्ति पिता के वंश
में ही जन्म लेता है इस लिए
उसका दादकों से गहरा सम्बन्ध
होता है। इस कबीले में बाप,
दादा
तथा दादे के भाई,
भतीजे
आदि रिश्तों में नज़दीकी रखते
हैं। सामान्य रूप से यह पक्ष
शरीके की भूमिका निभाता है.
पिता
के भाई, भतीजे
जहां दूसरे समाज में शरीके
की भूमिका निभाते हैं वहां
इनका आपसी प्यार-सम्बन्ध
तथा भ्रातृभाव बना रहता है.
यह
इनका लम्बे समय से सामूहिकता
तथा एकता में पैदा हुई मानसिकता
का ही परिणाम है। शरीका शब्द
भले ही शुष्क अर्थ ग्रहण कर
चुका है परन्तु यह कबीले में
बहुत अहम भूमिका निभाता है।
जन्म, विवाह
तथा मृत्यु के समय भी शरीके
की अलग-अलग
महत्ता होती है.
विवाह
में शरीके की एक अलग विशेष
पहचान होती है। विवाह के कुछ
रीति-रिवाज
शरीके के बिना पूर्ण नहीं हो
सकते। इनमें से मुख्य रस्म
गोत कनाला है। जिसे रकाधे
फिरना कहा जाता है। जिस से नई
दुल्हन को इस गोत्र में प्रवेश
करने की सामाजिक आज्ञा मिलती
है।
पिता
के भाई व्यक्ति के चाचे,
ताये
उनकी पत्नियां चाचियां,
ताइयां
तथा उनके लड़के-लड़कियां
उस व्यक्ति के लिए भाई-बहन
होते हैं. इनमें
विरोधता नहीं होती।
इनका
आपसी सम्बन्ध बहुत निकटवर्ती
होता है। इस स्नेह का कारण भी
इनकी सदियों पुरानी मानसिकता
ही निर्धारित करती है। हमारी
विरोधता या शुष्कता का कारण
हमारी आर्थिकता बनती है। अन्य
समाजों में इस रिश्ते के मध्य
दरार उनकी जायदाद और ज़मीन
उत्पन्न करती है। परन्तु इस
कबीले के पास ऐसी कोई सम्पत्ति
नहीं थी जिससे इन रिश्तों में
कोई दरार पड़ती। इसलिए यह
रिश्ते एक-दूसरे
के सुख-दुख
तथा मान-सम्मान
में हिस्सेदार होते हैं। लेकिन
अब कुछ स्थानों पर देखा गया
है कि सम्पत्ति के बंटवारे
के कारण इनके रिश्तों में दरार
आनी आरम्भ हो गई है।
दादकों
में एक अन्य प्रमुख भुआ/भतीजा/भतीजी
का होता है। यह रिश्ता भी बहुत
प्यार तथा नज़दीकी का होता
है। भुआ का रिश्ता आगे इनको
फूफा से जोड़ता है। मां-बाप
तथा संतान का रिश्ता बहुत
मूल्यवान स्वीकारा जाता है।
यह रिश्ते सदैव स्थिर सर्वव्यापक
तथा बुनियादी होते हैं। बेटी
से बेटे की महत्ता अधिक है।
बेटा-बेटी
अपने माता-पिता
के लिए निरन्तर सम्मान का
व्यवहार करते हैं तथा माता-पिता
भी अपनी संतान के लिए जिम्मेदार
रहते हैं। पति-पत्नी
का सम्बन्ध बहुत पवित्र माना
जाता है। बहन-भाई
का रिश्ता प्यार,
सांझ,
सहयोग
का है। भाई का कर्त्तव्य बहन
की हर पक्ष से रक्षा करना,
सहायता
करना, बुनियादी
व सदीवी है। एक ही माता-पिता
की संतान होने के कारण रिश्ता
(बंधन)
स्थाई
व अटूट होता है।
नानकों
में नाना-नानी,
मामा-मामी,
मौसा-मौसी,
दोहता-दोहती,
नाती-नातिन
आदि रिश्ते आते हैं। इनमें
से सबसे निकट का सम्बन्ध मामे
का होता है। मामे की विवाह की
रस्मों में बहुत महत्त्वपूर्ण
भूमिका होती है। विवाह का
मुख्य धुरा भांवर होती है।
जिससे औरत व मर्द पति-पत्नी
के पवित्र रिश्तों में बंधते
हैं। इस कबीले के भांवर वेद
से आर्य समाज के मंत्र उच्चारण
से होते हैं,
लड़की
व लड़के को खारे से उठाने का
काम भी मामा ही करता है।
इस
तरह मामा एक ऐसा रिश्ता बनकर
सामने आता है जो विवाह में
मुख्य भूमिका निभाता है।
नाना-नानी
तथा नाती-नातिन
का रिश्ता आपसी प्यार का होता
है। विवाह में नानका पक्ष
द्वारा नानकी छक लायी जाती
है। मौसी-मौसा
का भी रिश्ता निकट का माना
जाता है। नाना के भाई तथा
भाभियां भी नानी-नाना
कहलाते हैं।
कबीर
पंथियों में पहले आदान-प्रदान
के विवाह होते थे। लेकिन आजकल
ऐसा न होकर धर्म विवाह हो रहे
हैं। विवाह हो जाने के पश्चात
बहुत रिश्ते अस्तित्व में
आते हैं। पति के वंश के रिश्ते
पत्नी के लिए नये बन जाते हैं
तथा पत्नी की वंश के रिश्ते
पति के लिए नये बन जाते हैं।
यह कबीला बहुत गोत्रों में
बंटा हुआ है। जिसका वर्णन अलग
किया जा चुका है। एक ही गोत्र
के लोगों का आपस में (परस्पर)
विवाह
नहीं हो सकता। लेकिन अब कुछ
कबीर पंथी लोग अन्य जाति,
बिरादरी
व गोत्रों में विवाह करवाने
लग गए हैं।
पत्नी
के माता-पिता
सास, सुसर
बन जाते हैं। वह इन रिश्तों
को उसी नाम से पुकारते हैं।
जिस नाम से पत्नी पुकारती है।
इसी तरह पत्नी पति का रिश्ता
पति के माता-पिता
से बन जाता है। वह उसके सास
ससुर लगते हैं। वह उन्हें उसी
नाम से पुकारती है जिस नाम से
पति पुकारता है। पत्नी के लिये
पति के वंश के सभी चाचे,
ताये
उसके लिए ससुर तथा चाचियां,
ताइयां,
सासें
होती हैं। उनको सम्बोधन करने
के वही शब्द होते हैं जो पति
द्वारा उन्हें पुकारने के
होते हैं। पति का बड़ा भाई जेठ
(ज्येष्ठ
भ्राता) तथा
छोटा भाई देवर होता है। वह
उन्हें भाई कह कर पुकारती है।
छोटे देवर को नाम से भी पुकारा
जा सकता है। पति की बहन उसके
लिए ननद होती है। ननद भाभी का
रिश्ता प्यार व ईर्ष्या का
सुमेल होता है। सास-ससुर
व जेठ का रिश्ता उसके लिए बहुत
आदर सम्मान का होता है। वह
ससुर व जेठ को उनके नामों से
नहीं पुकार सकती।
घूँघट
की प्रथा भी इसी कारणवश आज तक
प्रचलित है। लेकिन अब यह प्रथा
कम होती जा रही है। देवर-भाभी
तथा जीजा-साली
का रिश्ता प्यार तथा हंसी-ठिठोली
का होता है। पत्नी के लिए पति
की भाभियां देवरानी व जेठानी
होती हैं उनके बच्चे दरिये-जठिये
कहलाते हैं। वह इनको अपने
बच्चों की भांति प्यार करती
है। पत्नी के भाई पति के लिए
साले व उनकी पत्नियां सालेहार
होती हैं। पत्नी की बहनों/बहनोइयों
से साली तथा सारु (साढू)
के
रिश्ते बनते हैं। दामाद का
ससुर से रिश्ता सम्मान सत्कार
तथा प्यार का होता है। जब कि
बहू का सास ससुर से रिश्ता
सम्मान, आज्ञापालन
के साथ विरोध का होता है तथा
कई बार इसमें तनाव भी बन जाता
है। पति तथा पत्नी के माता-पिता
आपस में समधी-समधिन
(कुड़म-कुड़मणी)
के
रिश्ते में बंध जाते हैं। बेटा
पक्ष सदैव ऊँचा तथा बेटी पक्ष
सदैव नीचा समझा जाता है। साले
तथा बहनोई (दामाद)
का
रिश्ता भी विशेष महत्त्व रखता
है। साले के लिए बहनोई आदर तथा
सम्मान का पात्र होता है।
भतीजी का पति दामाद होता है
तथा भतीजे की पत्नी भतीजा बहू
होती है।
इस
कबीले के सामूहिक रूप में रहने
के कारण और संयुक्त परिवार
के अस्तित्व के कारण दूर के
रिश्तों की बहुत महत्ता है।
पड़दादा-पड़दादी,
पड़नाना-पड़नानी
तथा शरीके के दूर के रिश्तों
को भी इसी नाम से पुकारना इनके
आपसी प्यार को दर्शाता है।
यह रिश्ते हैं। यह रिश्ते आपस
में प्यार, स्नेह
तथा खुशी के हैं। कबीर पंथी
लोगों के लिए विवाह का समय
बहुत हर्षोल्लास का होता है।
यह एक ऐसा अवसर होता है जब इस
कबीले की बहुत दूर की रिश्तेदारियों
वाले लोग भी इकट्ठे होते हैं
तथा मिलजुल कर जश्न मनाते हैं
इससे इनके रिश्तेदारी प्रबन्ध
में बहुत निकटता तथा प्यार
प्रकट होता है।
कबीर
पंथियों के विवाह सम्बन्धी
रीति-रिवाज़
जन्म,
विवाह
और मृत्यु मनुष्य जीवन की
मुख्य मंजिलें हैं जहाँ जन्म
से मनुष्यजीवन का आरंभ होता
है वहाँ मृत्यु से अंत। लेकिन
विवाह ज़िंदगी की वह मंज़िल
है जिस से स्त्री और पुरुष का
सम्मिलन गठबन्धन होता है।
उनके हृदय में इससे स्वाभाविक
रूप से हर्ष और उत्साह रहता
है, पर
कुटुम्बीजन,
गोत्र
व जाति तथा ग्राम नगर में भी
हर्षोल्लास की एक नई लहर दौड़
जाती है। उस समय स्त्रियां
बड़े ही चाव से मंगलगीत गाती
हैं।
जननी
(मां)
के
प्यार दुलार में व्यतीत किया
हुआ बचपन, मित्रों
के साथ खेलते यौवन तक पहुँचते
हुए वह ऐसे मुकाम पर पहुँचता
है जहां उसे अपने जीवन साथी
की आवश्यकता होती है। वह अपने
जीवन साथी का चुनाव अपनी इच्छा
से नहीं कर सकता। जीवन साथी
का चुनाव करते समय उन्हें कुछ
सामाजिक नियमों का पालन करना
पड़ता है। यह नवजीवन भी वह इस
समाज में रहते हुए सामाजिक
मर्यादाओं के अनुसार व्यतीत
करता है। यह सामाजिक मर्यादा
ही उसके लिए रीति-रिवाजों
का रूप धरण करती है। प्रत्येक
भाईचारे में अपने अलग रीति-रिवाज
होते हैं। रीति-रिवाज
जाति के विश्वासों,
संकल्प
तथा निश्चय में सहजभाव से
विनम्रतापूर्वक पुरखों के
अनुभव के रूप में,
समय
के साथ आगे प्रस्थान करते हैं।
प्रत्येक जाति प्रत्येक कबीले
के अपने रीति-रिवाज
होते हैं। रीति-रिवाज
ही उसे दूसरी जाति और कबीले
से अलग करने में अहम भूमिका
निभाते हैं। पंजाब के कबीरपंथी
जो कि वास्तव में ‘मेघ’ कबीले
के लोग हैं, इस
कबीले की रस्मों में दूसरी
जातियों व कबीलों से बहुत सी
विभिन्नताएं हैं। इस अध्याय
में हम विवाह के अनुष्ठान पर
विचार करेंगे।
सभी
कबीरपंथी जम्मू के मूल निवासी
हैं। यह कबीला अंग्रेज़ी राज्य
के समय, जम्मू
के साथ सटे हुए पंजाब के क्षेत्र
जो जम्मू की रियासत के बाहर
अंग्रेज़ों के अधीन थे,
में
स्थायी रूप में शहरों व गांवों
मे बस गया। परन्तु इनकी विवाह
की ज्यादा रस्में पहले जैसी
ही रहीं। जबकि कुछ रीतियों
में आर्य समाज के प्रभाव के
कारण बदलाव भी आ गया है।
सगाईः-
विवाह
से पहले सगाई (मंगनी)
होती
है। पहेल सगाई कन्या पक्ष के
घर होती थी। परन्तु आजकल यह
लड़के वालों के घर भी हो जाती
है। कन्या या लड़के वाले किसी
विचौले को (प्रतिनिधि)
जो
कोई पंडित, नाई
अथव रिश्तेदार को लड़की या
लड़के के घर संदेश भेज कर विवाह
का प्रस्ताव करते हैं। वह उनके
परिवार के मुखिया या बड़े
सदस्यों से उनके बच्चों के
रिश्ते की बात चलाता है। आजकल
अकसर यह रिश्ते मामा,
मासड़,
ताया
चाचा या अन्य सम्बन्धी करवाते
हैं। जब दोनों पक्ष सम्बन्ध
बनाने में सहमत होते हैं तब
लड़का लड़की एक दूसरे को देखते
हैं और उनके कहने पर रिश्ता
मंजूर होता है। लेकिन प्राचीन
समय में लड़का लड़की एक-दूसरे
को शादी से पहले न तो देखते थे
न ही मिलते थे। जो घर परिवार
के बड़े सदस्य फैसला ले लेते
थे सभी को स्वीकार होता था।
आज भी बहुत से विवाह ऐेसे ही
हो रहे हैं। पहले छोटी आयु में
ही रिश्ते कर दिए जाते थे।
सगाई कई-कई
वर्ष विवाह से पहले हो जाती
थी। लेकिन आजकल ऐसा नाम मात्र
ही हो रहा है। पहले लड़की-लड़के
के हाथ में रुपया रख कर यह रीति
होती थी। आजकल रुपये के साथ
लोग सोने के आभूषण भी पहनाने
लगे हैं। लड़के व लड़की पक्ष
के लोग निश्चित किए स्थान पर
इकट्ठे होते हैं। वहीं लड़की
व लड़का एक दसूरे को सभी की
उपस्थिति में अंगूठी पहनाते
हैं। लड़का पक्ष लड़की को नये
वस्त्र व चूडि़यां भी पहनाता
है। लड़की को शगुन की चुनरी
भी ओढ़ाई जाती है। दोनों परिवार
लड़की व लड़के को शगुन देते
हैं। लेकिन पहले समय में
मध्यस्थता करने वाला (अंगवा)
ही
लड़की व लड़के को शगुन देता
था। वही मान्य होता था।
दिन
मिथना या साहा धरना अथवा मुहूर्त
निकलवानाः प्राचीन समय में
अन्य समाजों की भांति लड़के-लड़की
की छोटी आयु में ही सगाई कर दी
जाती थी। जिस कारण विवाह व
सगाई में कईं वर्षों का अन्तराल
पड़ जाता था। इसी कारण यह रीति
होती थी। लेकिन अब जब लड़की-लड़के
के विवाह से कुछ दिन या महीने
पहले ही सगाई होती है। इसलिए
यह रीति नाम की बची है। पहले
लड़की-लड़का
पक्ष विवाह का दिन निश्चित
करने से पहले सभी पारिवारिक
रिश्तेदारों व साक सम्बन्धियों
से बात-चीत
करके उचित तारीख पक्की कर साहा
धरा जाता था। लेकिन अब लड़की
लड़का पक्ष अपनी सुविधा के
अनुसार दिन पक्का कर लेते हैं।
वह पहले की तरह कुलाचार से
बातचीत नहीं करते। इसलिए यह
रीति नाम की ही बची है।
गंडा
देनाः- विवाह
का दिन नियत होने पर लड़की व
लड़का पक्ष अपने पारिवारिक
समुदाय को आप जाकर विवाह के
मुहूर्त के बारे में बताते
हैं। प्राचीन समय में यह लोग
पढ़े लिखे नहीं थे न ही शिक्षित
होने के साधन थे,
जिससे
वह विवाह का दिन याद रख सकते।
इसलिए यह किसी धागे या कपड़े
पर गांठें लगा लेते थे। यह
धागा या मौली लाल रंग का होता
है। इस पर जितना महीने का दिन
हो उतनी ही गांठें दी जाती हैं
लेकिन आधुनिक समय में इस रीति
का स्थान कार्डों ने ले लिया
है। अब यह रसम अलोप हो गई है।
छड़पालाः
दूल्हे के दोस्त या जीजा जी
को छड़पाला बनाया जाता है।
जो भाई की भूमिका निभाता है।
वह शादी से लेकर मुकलावे तक
साथी रहता है।
मेल
आना : नियत
समय पर लड़की व लड़के के घर
में जैसे-जैसे
मेल आतिथ्य आता है,
विवाह
की चमक-दमक
बढ़ने लगती है। साकसम्बन्धी,
भाईचारा
सभी प्यार से मेल बन कर आते
हैं। मेल नानका पक्ष व दादका
पक्ष दो तरह का होता है। नानका
पक्ष मेल में सबसे ज्यादा
महत्त्वपूर्ण रहता है। नानके
व दादके रिश्तेदारी के दो
प्रमुख स्तम्भ माने जाते हैं।
जिनके ऊपर पूर्ण रूप से
रिश्तेनातों का प्रबन्ध खड़ा
होता है। नानका मेल नानकी ‘छक’
लाने के कारण महत्त्वपूर्ण
होता है। वह लड़की के विवाह
के समय उसे दिए जाने वाले दहेज
में अपना योगदान देने के कारण
तथा विवाह में अनेक रीति रिवाजों
में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभाता है। नानका मेल में मामे
की खास महत्ता होती है। नानके
लड़की तथा लड़के के विवाह में
‘हाथ भरा’ लेकर आते हैं। जिसको
‘तियुर’ कहा जाता है। यह गुलाबी
रंग के कपड़े होते हैं,
जो
लड़की या लड़के की मां पहनती
है। यह रस्म आज भी पारस्परिक
होंद कायम रख रही है। मेल की
औरतें शगुनों के समय गीत गाती
हैं। परन्तु नानका मेल गीत
गाता हुआ विवाह वाले घर प्रवेश
करता है। यह गीत विवाह वाले
लड़के या लड़की से सम्बन्धित
होते हैं।
लड़के
वाले घरः
उठ
वे मुंडिया (विवाहा
वाले लड़के का नाम लेकर)
सुतिया
तेरे मामड़े आये।
लड़की
वाले घरः
उठ
नी बीबी (विवाह
वाली लड़की का नाम)
लेकर
सुतीए तेरे मामड़े आये।
इस
तरह यह गीत आगे चलता देख मेल
की अन्य औरतें भी गीत गाना
शुरू कर देती हैं। इस तरह नानका
मेल व मेल के बीच गीतों का आपसी
प्रवाह चल पड़ता है। इन गीतों
में हंसी ठठा,
प्रहसन
तथा एक-दूसरे
को नीचा दिखाना मुख्य विषय
होता है। इन गीतों को ‘गिसठनियां’
(सिठनियाँ)
कहा
जाता है। इस तरह विवाह वाले
घर का दृश्य बहुत खूबसूरत,
मनमोहक
दिखाई देता है। यह सभी रिवाज
आज भी प्राचीन परम्परा समेटे
हुए हैं।
प्राचीन
समय में यातायात के साधन न
होने से तथा इस कबीले के आर्थिक
हालात भी बुरे होने से विवाह
कई-कई
दिन चलता था। जबकि आज आधुनिक
समय में यह रीति खत्म होना
आवश्यक था। आज विवाह एक या दो
दिनों तक सीमित रह गया है।
लेकिन रीति में कोई बड़ा बदलाव
नहीं हुआ। लेकिन समय और स्थान
में परिवर्तन हुआ है।
मेंहदी
लगाना : मेंहदी
रचाने की रस्म विवाह से एक या
दो दिन पहले होती है। लड़की
को उसकी सहेलियां,
भाभियां
व अन्य औरतें इकट्ठी बैठ कर
मेंहदी लगाती हैं। यह मेंहदी
लड़के व लड़की के हाथों व पाँवों
को लगाई आती है। यह मेंहदी दो
तरह लगती है एक चोरी की मेंहदी
दूसरी शगुन की मेंहदी,
चोरी
की मेंहदी शगुन में आई मेंहदी
से पहले लगाई जाती है। उसके
बाद शगुन में आई मेंहदी लगाई
जाती है। लड़के को उसकी बहनें
व भाभियां मिल कर मेंहदी लगाती
हैं। मेंहदी से शरीर पर रंग
चढ़ता है जो विवाह वाले लड़के
व लड़की के जीवन में रंग भरने
का प्रतीक है। यह रस्म आज भी
पारम्परिक रिवाज को जीवित
रखे हुए है।
शगुन
लगाना या तिलक भेजना :
शगुन
की रस्म विवाह से एक दिन पहले
की जाती है, लेकिन
अब यह भी देखा गया है कि विवाह
के दिन ही शगुन लग जाता है।
लेकिन फिर भी विवाह से एक दिन
पहले तिलक लगाने का रिवाज है,
क्योंकि
तिलक में ‘मेंहदी व उबटन भेजा
जाता है। जिस को हल्दी तेल
लगाने की रसम के समय विवाह
वाले लड़के व लड़की को लगाया
जाता है और फिर स्नान करवाया
जाता है। मौसमानुसार गर्म
तथा शीतल जल स्नान के लिए
प्रयुक्त किया जाता है।
इस
रिवाज को विवाह के एक दिन पहले
किया जाता है। शगुन में विवाह
वाले लड़के व लड़की को ‘छुहारा’
खिलाया जाता है। शगुन पहले
लड़की पक्ष से लड़के पक्ष को
आता है। फिर लड़के वाले कन्या
के घर शगुन ले जाते हैं। शगुन
में लड़की को चुनरी ‘ओढ़ाई’
जाती है। इसके साथ लड़की व
लड़के की ‘झोली’ में ‘बिद’
डाली जाती है। बिद छुहारे,
मेवे,
बादाम,
मखाने
के मिश्रण को कहा जाता है।
लड़की अपनी सहेलियों को बिद
बाँटती है। इसके साथ अब आभूषण
व अन्य कीमती उपहार भी दिये
जाने लगे हैं। एक टोकरा फलों
का भी शगुन में जाता है। इस
समय सभी रिश्तेदार लड़के व
लड़की को शगुन देते हैं।
उबटन
मलना तथा खरा लगानाः यह रिवाज
बहुत प्राचीन है। यह रिवाज
पंजाब की अन्य जातियों से
मिलता है। उबटन विवाह से एक
दिन पहले रात को नहलाते समय
लगाया जाता है। उबटन तेल,
हल्दी,
बेसन
तथा चीकू के सुमेल से बनता है।
इसको विवाह वाले लड़के की
बहनें, भाई,
भाभी,
मौसी,
फूफी
मिल कर लगाते हैं। इसी तरह
विवाह वाली लड़की को उबटन उसकी
सहेलियां और भाभियां मिल कर
लगाती हैं। कहा जाता है कि
उबटन लगाने से लड़के-लड़की
का रूप निखर जाता है। लड़के
व लड़की के ऊपर फुलकारी ओढ़ी
जाती है। जिसके चारों किनारे
पकड़ कर रखे जाते हैं। एक बेरी
की लकड़ी की हाथ भर पटरी होती
है। जिसको मौली का धागा बाँध
जाता है। उसके ऊपर लड़का या
लड़की बैठते हैं। लड़की की
मींडियाँ खोली जाती हैं। कहा
जाता है कि प्राचीन समय में
लड़कियां मींडीयाँ करती थीं।
लेकिन अब यह रिवाज खत्म हो
चुका है। उनको स्नान के उपरान्त
मामा खारे से उतारने की रस्म
अदा करता है। औरतें गीत गाती
हैंः
फला
भरी चंगेर एक फल तोरी दा
ऐस
वेले दी लोड़ मामा लोड़ी दा।
मामा
लड़के/लड़की
को शगुन का रुपया देता है तथा
उन्हें खारे से उठने को कहता
है। लड़के के आगे कुछ दूर पांच
‘कोरी चपणियां’ (कोरी
चपणियां मिट्टी का बना हुआ
नया ढक्कन होता है)
रखी
जाती है। लड़का उनके ऊपर कूद
कर उन्हें तोड़ देता है। इस
तरह मामा फिर लड़के व लड़की
को उठाकर खारे की रस्म अदा
करता है। यह रिवाज आज भी पहले
की भांति स्नेह से किया जाता
है। इसके उपरान्त कन्या व
लड़के को तिलक में आई मेंहदी
लगाई जाती है।
सेहरा
बाँधना- सेहरा
बाँधने की रस्म भी पंजाब के
अन्य लोगों की भांति की जाती
है। खारे की रस्म के बाद जब
दूल्हा सुन्दर वस्त्रों में
सुसज्जित होता है तब दूल्हे
की बहन सेहरा लेकर आती है जिसे
दूल्हे का मामा दूल्हे के सिर
पर बाँधता है। सेहरा दूल्हे
को सभी बारातियों से अलग करता
है। उसकी सजावट में बढ़ोतरी
करता है। इस समय पहुँचे हुए
नातेदार दूल्हे को शगुन देते
हैं। कहा जाता है कि प्राचीन
समय में कबीर पंथियों को सेहरा
बाँधने की ऊँची जाति के लोग
इजाज़त नहीं देते थे। लेकिन
इस बात को कुछ ही लोग स्वीकार
करते हैं। लेकिन इस समय सेहरा
बांधने की कोई समस्या नहीं
है। लोग बहुत ही प्रसन्नता
से यह रिवाज करते आ रहे हैं।
सेहरा बाँधने के बाद ही बारात
प्रस्थान करती है।
घुड़चढ़ी
: वर
सज्जा के पश्चात घुड़चढ़ी का
अनुष्ठान होता है। भारतीय
समाज में लगभग प्रत्येक जाति,
धर्म
के विवाह का यह प्रमुख अनुष्ठान
है। घुड़चढ़ी के बाद दूल्हा,
दुल्हन
को लिए बिना घर नहीं आता।
सेहरा
बांधने के पश्चात् जब बारात
घर से प्रस्थान करती है या
कन्या पक्ष के घर के समीप आगमन
करती है तो दूल्हा घोड़ी पर
बैठ कर बैंडबाजों के संग निकल
कर पहुँचता है। घर पर घोड़ी
पर बैठते समय दूल्हे की बहनें
घोड़ी की लगामें बूंथती हैं।
वर का पिता लड़कियों को रुपए
या उपहारों का शगुन देता है।
इसी समय दूल्हे की भाभियां
देवर की आंखों में सुरमा डालती
हैं। यह रस्म दूल्हे का श्रृंगार
करने के लिए की जाती है। दूल्हे
का पिता बहुओं को शगुन देता
है। इस तरह से बारात लड़की के
ग्राम की सीमा में प्रवेश करती
है तो कन्या पक्ष उसका स्वागत
करता है।
बारात
का स्वागत : जब
दूल्हा बैंडबाजों के संग
दुल्हन के घर प्रवेश करता है
तो दुल्हन का भाई दूल्हे को
घोड़ी से उतारने की रस्म अदा
करता है। यह रस्म एक तरह दूल्हे
का सम्मान करने के लिए की जाती
है। इससे पहले,
दूल्हे
के भाई, रिश्तेदार
व मित्र नाच-गा
कर भंगड़ा डालते हुए बरात के
आगे चलते हैं व खुशियाँ मनाते
हैं।
मिलनी
: जब
दूल्हा बारात लेकर लड़की के
घर पहुंचता है तो वहां पर मिलनी
की रस्म की जाती है। मिलनी
करने से ही वास्तव में रिश्तेदारी
बनती है, यह
कहा जाता है कि मिलनी में दुल्हन
का पिता दूल्हे के पिता से
दुल्हन का मामा,
दूल्हे
के मामो से,
दादा-दादे
से, चाचा-चाचे
से मिलनी करते हैं। इसी तरह
दुल्हन की माता दूल्हे की माता
से, मौसी-मौसी
से, चाची-चाची
से मिलनी करती हैं। वह एक दूसरे
के गले में पुष्पहार डाल कर
गले मिलते हैं तथा मीठा मुँह
करते हैं। वधु पक्ष वर पक्ष
को उपहार भी शगुन के रूप में
देते हैं।
दूध
पिलाना : दूल्हे
को दुल्हन की बहनें व सहेलियां
दूध पिलाती हैं व शगुन लेती
है।
भांवर
: इस
रीति को लावां अथवा फेरे भी
कहते हैं। विवाह एवं फेरों
से पूर्व मण्डप सजाने की रीति
है। मंडप बनाकर चौक पूरने का
काम किया जाता है,
उसके
बाद भांवरे पड़ती हैं।
शुभ
मुहूर्त में जब दूल्हा मंडप
में आता है तो कन्या का पिता
कन्या का हाथ वर के हाथ में
देकर कन्यादान करता है। जब
वर कन्या को ग्रहण कर लेता है
तो यह पाणिग्रहण कहलाता है।
कन्यादान के पश्चात कन्या के
पिता का कन्या पर से अधिकार
समाप्त हो जाता है और पति का
स्वामित्व बन जाता है। कबीर
पंथी भंवर आर्य समाज की विधि
से सम्पन्न करते हैं। कुछ सिख
लोग गुरु ग्रंथ साहिब से भी
फेरे करते हैं। लेकिन हिन्दुओं
में वर व वधु अग्नि के चारों
ओर परिक्रमा करते हैं। इस समय
वह दोनों ग्रंथिबंधन में बंधे
रहते हैं। वर-वधू
अग्नि के चारों ओर घूमकर जीवन
भर साथ रहने की प्रतिज्ञा करते
हैं। कन्या का भाई या पिता
उसका दूल्हे से ग्रंथिबंधन
करता है।
मांग
भरना : सिर
के बालों को विभक्त करके बनाई
जाने वाली रेखा को मांग कहते
हैं। सिन्दूर से भरी हुई अथवा
सजी हुई मांग स्त्रियों के
सौभाग्यवती होने का प्रतीक
है। भांवर के समय वर-वधू
की सिन्दूर से मांग भरता है।
वरमाला
: वधू
द्वार पर वर को माला पहनाना
वरमाला कहलाता है। जब वर वधू
को माला पहनाता है तो वह जयमाला
कहलाती है। इस रस्म के बाद सभी
बाराती खाना खाते हैं।
टाँग
बाँधना : भावरों
के पश्चात् दूल्हे की उस घर
के अन्य दामादों (साढूओं)
के
साथ टांग बांध दी जाती है। घर
की बड़ी औरतें उनको शगुन देती
है। फिर दुल्हन की बहनें व
सहेलियां दूल्हे से शगुन लेकर
उसकी टांगें खोल देती हैं।
यह सभी दामादों का आपस में
परिचय करवाने हेतु होता है।
दहेज
: कबीर
पंथी समाज में कन्या की विदाई
के समय जो उपहार दिए जाते हैं,
वह
दहेज कलाता है।
विदाई
: यह
भी एक वैवाहिक रस्म है। जिस
दिन बारात कन्यापक्ष के यहां
आती है वह दिन चढ़ता और जब वापिस
जाती है वह समय विदाई कहलाता
है। ‘डोली’ चलने के समय एक तरह
खुशी होती है तो दूसरी ओर कन्या
का मां-बाप
से बिछोड़े का ग़म होता है।
वह इस समय अपने आंसू नहीं रोक
सकती। माता-पिता,
भाई,
बहन
की आंखें भी आँसुओं से नम हो
जाती हैं। डोली कन्या के घर
से विदाई लेती है।
बहू
का स्वागत या डोली का स्वागत
: कन्यापक्ष
की ओर से विदाई के अनुष्ठान
के पश्चात् के घर में डोली का
स्वागत नामक अनुष्ठान होता
है। इस अनुष्ठान में वर पक्ष
की स्त्रियां डोली के स्वागत
के लिए घर के द्वार पर एकत्र
हो कर मंगलगीत गाती हैं।
आरती
उतारना : वधू
के साथ वर जब घर के द्वार पर
आता है तो मां,
बहन
अथवा सुहागिन स्त्रियां आरती
उतारती हैं।
पानी
न्यौछावर करना :
वर
जब वधू के साथ गृहप्रवेश करने
लगता है तो मां उस समय वर वधू
के ऊपर से पानी वार कर पीती
हैं। द्वार पर वर-वधू
के आगमन पर तेल का रिसाव करके
शगुन किया जाता है। दूल्हे
की माँ पाँच या सात बार पानी
वारती है जिसे दूल्हा हर बार
पानी पीने से मना करता है।
लेकिन पांचवीं या सातवीं बार
वह पानी पी लेती है।
दरगास
: पानी
न्यौछावर करने के पश्चात्
दूल्हा-दुल्हन
को दरगास के आगे बिठाया जाता
है। दीवार पर बनाए रंगीन शुभ
चित्रों को दरगास कहते हैं,
दरगास
के आगे बैठने के पश्चात् दुल्हन
को ‘गुलरा’ दिया जाता है जो
मीठी वस्तु या मिठाई होती है।
दुल्हन उस में से पाँच मुट्ठियां
भर कर बाहर निकालती है और अपनी
मामी को देती है। इसके पश्चात्
दूल्हे व दुल्हन का मुंह मीठा
करवाया जाता है।
गोद
में बैठना : दूल्हे
का छोटा भाई दुल्हन की गोद में
बैठ कर शगुन करता है वह उसे
कुछ रुपयों का शगुन देती है।
यह इस लिए किया जाता है कि
दुल्हन की गोद भी जल्दी भरे
और पहले लड़के को जन्म दे।
मुंह
दिखाई : इसके
बाद मुँह दिखाई की रस्म पूरी
की जाती है पास-पड़ौस
की बहुत सी स्त्रियां,
सास-ससुर
आदि नववधू का मुख देख कर उसे
भेंट देते हैं यह सभी उपहार
नववधू का निजधन होते हैं।
मुर्गा
वारना : जब
दूल्हा-दुल्हन
गृह प्रवेश करते हैं तो दूल्हे
का मामा दोनों के सिर पर से
मुर्गा वारता है व उसकी बलि
दी जाती है। यह मुर्गा डोली
वालों का होता है। वह इसका मीट
खाते हैं। आज कल कुछ विवाहों
में इसके स्थान पर शगुन भी
दिया जाने लगा है। यह परंपरा
प्राचीन समय से जारी है।
लड़की
का श्रृंगार करना :
कुल
देवता के पूजन से पहले दुल्हन
की ननदें दुल्हन का श्रृंगार
करती हैं व उससे शगुन प्राप्त
करती हैं।
कुल
देवता पूजन : इस
रसम को ‘रकाधे फिरना’ कहा जाता
है। सभी लौकिक रीतियों के
पश्चात् वर-वधू
से ‘जठेरों’ का पूजन करवाया
जाता है। इस परंपरा में परिवार
के अन्य सदस्य भी शामिल होते
हैं। इसमें बेरी की टहनी (एक
शाखा तोड़ कर)
रखी
जाती है। फिर उस टहनी के सामने
धूप तथा दीपक जला कर पूर्व की
ओर रखा जाता है। सभी परिवार
मिल कर उस स्थान के इर्द-गिर्द
भांवर लेते हैं तथा प्रत्येक
भांवर के पश्चात् मत्था टेकते
हैं। उसके पश्चात् पूड़े व
खिचड़ी को मिल कर खाया जाता
है। एक हिस्सा जठेरों के नाम
का रखा जाता है उसे कौओं को
डाल दिया जाता है। पुड़ों पर
एक तिनके से सुरमे का टीका भी
किया जाता है। इस तरह से नई आई
दुल्हन की जेठानियां व ननदें
बनाती हैं।
इस
रीति से कबीर पंथियों का कबीलायी
अतीत झलकता है। कबीलायी लोगों
का समाज औरत प्रधान होता है।
इसमें भी हम देखते हैं कि सभी
कार्य व्यवहार औरतें ही सम्पन्न
करती हैं। पुरुष की भूमिका
बहुत कम है। इसके बिना इस अवसर
पर ‘धी-ध्यानी’;
बेटीद्ध
का पूजन होता है। कुछ गोत्रों
में ‘दोत्रामान’ (नातेदार)
का
भी पूजन होता है। इससे आभास
होता है कि इस कबीले में
रिश्तेदारी का कितना गहरा
सम्बन्ध है तथा स्त्री को
महत्त्व मिलता है। बेटों के
साथ बेटी का सम्मान बराबर होता
ही है उसके बच्चों का भी सम्मान
किया जाता है। विवाह के समय
भी सभी लोक गीत औरतें ही गाती
हैं। कुल देवता के पूजन के
पश्चात् देहरी पर जाया जाता
है। वहाँ बकरे की बलि दी जाती
है। वहां जाकर फिर भांवर लिए
जाते हैं।
मुकलावा
: आज
के समय में मुकलावे की रस्म
भी की जाती है। विवाह से दूसरे
दिन दुल्हन तथा उसके डोली के
साथ आए हुए रिश्तेदार वापिस
अपने घर जाते हैं। उसके बाद
दूल्हा-दुल्हन
को लेकर अपने घर आता है। दूल्हे
के साथ उसका छड़पाला भी होता
है। वह लड़के का दोस्त या बहनोई
होता है। वह सांत वाले दिन से
ही साथ रहता है।
इस
कबीले में विधवा विवाह की
व्यवस्था भी है,
जो
लड़के या लड़की के पारिवारिक
सदस्य उसकी सहमति से करते हैं।
आमतौर पर कबीरपंथियों में एक
पत्नी तथा एक पति की प्रथा
प्रचलित है। परन्तु कुछ एक
बहुपत्नी विवाह भी देखे गए
हैं। लेकिन बहु पत्नी विवाह
इस समाज में बिल्कुल प्रचलित
नहीं है। एक औरत ने कभी भी एक
से ज्यादा पति नहीं रखे हैं।
कबीर
पंथियों के विवाह अवसर से
संबंधित लोकगीत
वैसे
तो सभी शुभ कार्य मंगलरूप या
मांगलिक कहे जाते हैं पर विवाह
उन सब में प्रधान है। जीवन में
विवाह एक ऐसा मांगलिक अवसर
है कि भारतीय संस्कृति को काम
में ही नहीं, धर्म
में भी स्थान मिला है। विवाह
में स्त्री और पुरुष का सम्मिलन
गठबन्धन होता है। उनके हृदय
में इससे स्वाभाविक रूप से
हर्ष और उत्साह रहता ही है पर
कुटुम्बीजन,
गोत्र
व जाति तथा ग्राम नगर में भी
हर्षोल्लास की एक नई लहर दौड़
जाती है। इस समय सध्वा स्त्रियां
बड़े ही चाव से मंगलगीत गाती
हैं। पंजाब में त्यौहारों,
उत्सवों
तथा विवाह आदि के अवसर पर गाये
जाने वाले गीत लोकगीतों की
परंपरा से सम्बन्ध रखते हैं।
जिनका मूल उद्देश्य लोक मंगल
ही है। यह एक ऐसा भाव है जो
जनसामान्य को आनन्दित करने
के लिये प्रयुक्त होता है।
वैदिककाल
से लेकर आज तक लोकगीतों के
भीतर ही भीतर एक अखण्ड संस्कृति
का सूत्रपात दिखाई देता है।
लोकगीतों ने लोक भाषा के द्वारा
संस्कृति का विकास किया है।
आज प्रत्येक प्रांत का भौगोलिक,
सामाजिक,
आर्थिक
तथा राजनैतिक वातावरण प्रांत
में कुछ विशेष प्रकार के
संस्कारों को जन्म देता है।
यही संस्कार,
रीति-रिवाज
एवं परम्पराएं उस प्रदेश के
जनमानस को प्रभावित करती हैं
तो अन्य प्रान्तों से भिन्नता
भी प्रदान करते हैं। प्रांत
का शिक्षित तथा अशिक्षित वर्ग
उन पर आस्था रखता हुआ गौरव
अनुभव करता है। लोकगीतों में
वर्णित संस्कारों,
रीति-रिवाजों
से जहां तत्कालीन समाज के
रिवाजों का ज्ञान होता है वहीं
आधुनिक युग में भी उन रिवाजों
को देखकर हमें अपनी सभ्यता
और संस्कृति पर गर्व होता है।
साधारण
जन का लोक-गीत
को सुनकर भाव-विभोर
हो जाना स्वाभाविक है। इन्हीं
गुणों के कारण यह दिन-प्रतिदिन
लोगों में लोकप्रिय होता गया।
जैसे-जैसे
समय व्यतीत होता गया,
जनसाधरण
में इसकी प्रसिद्धि बढ़ती
गई। लेखकों का नाम विलीन हो
गया, पर
लोकगीत लोकप्रियता की सीढि़याँ
चढ़ते गए, क्योंकि
यह गाने के लिए होते थे। इन
कवियों ने इनको अलिखित रूप
देना ही उचित समझा। लगभग इसका
मौखिक रूप प्रचलित रहा। अतः
लोकगीत आनन्द प्राप्ति के
साथ अतीत तथा वर्तमान में
प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित
करते हैं।
लोकगीत
अधिकतर विवाह से सम्बन्धित
हैं। विवाह से सम्बन्धित सभी
रीतियों जैसे योग्य वर की
तलाश, सम्बन्ध
निश्चित करना,
तिलक
भेजना, विवाह
की तैयारियां,
बारात
का स्वागत करना,
उबटन
लगना, मंडप
सजाना, मंत्र
पढ़ना, कन्यादान,
दान
दहेज सहित कन्या की भावपूर्ण
विदाई, दुल्हन
का स्वागत, पानी
वारना, कंगना
खेलना आदि को श्रेष्ठ विधि
से इन काव्यों में चित्रित
किया गया है। पंजाब में विवाह
के विभिन्न अवसरों पर स्त्रियों
द्वारा जो लोकगीत गाए जाते
हैं उनमें समय के साथ-साथ
हंसी मजाक करने हेतु थोड़ी
सी कहीं-कहीं
अभद्रता मिश्रित हो गई है।
अधिकांश रचनाओं में ग्रामीण-भाषा
ही प्रयुक्त हुई है। लोकगीतों
की रचना का माध्यम लोकभाषा
को ही बनाया गया है। जिससे इन
काव्यों की भाषा में सरलता,
सहजता
तथा गति आ गई। लोकभाषा के साथ
इनमें कहीं-कहीं
विदेशी शब्दों का भी व्यवहार
मिलता है। लेकिन इनका प्रयोग
कभी असामान्य प्रतीत नहीं
होता बल्कि ऐसा लगता है कि इन
देशी-विदेशी
शब्दों ने लोक गीतों को नया
जीवन तथा उत्साह प्रदान किया
है।
लोक
गीत लयबद्ध ताज़गी भरपूर
निर्मल तथा रोचक होने के साथ
हमेशा नये होते हैं,
चाहे
यह शताब्दियों की लम्बी यात्रा
के पश्चात् हमारे पास पहुंचते
हैं। लोक गीत प्रत्येक समय
हमारे जीवन में रचे-बसे
रहते हैं। पंजाबियों के बारे
में प्रचलित है कि यह गीतों
में जन्म लेते हैं,
बड़े
भी लोरियों में होते हैं,
विवाह
भी गीतों में होता है तथा मत्यु
समय भी गीत गाए जाते हैं। विवाह
एक ऐसा शुभ अवसर है जब सभी बहुत
प्रसन्न होते हैं। इस खुशी
के अवसर पर प्रत्येक व्यक्ति
नाचता झूमता दिखाई पड़ता है।
कबीर
पंथी बहुत समय तक कबीलायी जीवन
यापन करते रहे हैं। इनके लिए
विवाह का अवसर बहुत खुशी वाला
होता है। यह लोग इस अवसर को
बहुत दिनों तक इकट्ठे मिल बैठ
कर मनाते हैं। इस समय महफिलें
सजती हैं। विवाह की प्रत्येक
रस्म के समय लोक गीत चश्मे की
भांति स्वयं निकल पड़ते हैं।
यह लोक गीत हमारे पास पीढ़ी
दर पीढ़ी मौखिक रूप में पहुँचे
हैं। इन लोक गीतों को आज भी इन
लोगों ने अपने मनों में सींच
कर रखा है तथा विवाह के अवसर
पर इनको गाया जाता है। इन लोक
गीतों में विवाह की रस्मों
की झलक के साथ लड़के व लड़की
वालों की मनोःस्थिति भी झलकती
है। इस अध्याय में हमारे अध्ययन
का केन्द्र कबीर पंथियों से
सम्बन्ध्ति वही लोक गीत होंगे
जो अन्य बिरादरियों के लोगों
से भिन्न हैं।
नानका
मेल विवाह में महत्त्वपूर्ण
स्थान रखता है। लड़की के विवाह
में नानका पक्ष नानकीषक (नानके
छक) लेकर
आता है तथा लड़के के विवाह में
भी नानकों के बिना बहुत सी
रस्में अधूरी रहती हैं।
नानका
मेल आता हुआ गीत गाता हैः
उठ
वे मुंडिया (विवाह
वाले लड़के का नाम लेकर)
सुतिया
तेरे मामड़े आये।
यदि
लड़की का विवाह हो तोः
उठ
नी बीबी सुतिये (विवाह
वाली लड़की का नाम लेकर)
तेरे
मामड़े आये।
मामींया
बन बनेदियां मामें नानी दे
जाये।
मामीयां
चूड़ी वालियां,
मामें
कैंठियां वाले।
हथी
दारु दीया बोतलां,
मामें
पींदड़े आये।
नानका
मेल का आगमन देख कर मेल की अन्य
औरतें भी गीत गाने शुरू कर
देती हैंः
मामीयां
चोणे दीयां वछियां,
मामे
चारदे आये। धरणा बदल करः
छज
ओहले छानणी, परात
ओहले तवा वे।
ननकीयां
दा मेल आया सूरीयां दा रवा ऐ।
इस
लोक गीत में हम विवाह में
पहुँचने वाले नानका पक्ष की
सजधज तथा व्यवहार का पता लगा
सकते हैं। इस कबीले के स्त्री
व पुरुष सभी आभूषण पहनते हैं,
जिसकी
झलक इस लोक गीत में प्राप्त
होती है। मेल की औरतों की तरफ
से इन गीतों के उत्तर में
सिठनियां दी जाती हैं। सिठनियों
का भाव हंसी ठिठोली होता है।
मेंहदी
रचाने की रस्म के समय भी गीत
गाए जाते हैं जो इस प्रकार
हैंः-
बड़े
बाबल का बेटा मेंहदी लावन दे।
बड़े
बाबे का पोता मेंहदी लावन दे।
बड़े
नाने का दोहत्ता मेंहदी लावन
दे।
लड़की
को मेंहदी लगाते समयः
बड़े
बाबल की बेटी मेंहदी लावन दे।
बड़े
बाबे दी पोती मेंहदी लावन दे।
बड़े
नाने की दोहत्ती मेंहदी लावण
दे।
इन
गीतों में सरलता तथा संक्षिप्तता
देखते ही बनती है। परन्तु यह
गीत लम्बी सुर व लय में गाये
जाते हैं। इन दोनों गीतों में
लड़के व लड़की को मेंहदी लगवाने
के लिए कहा जाता है। दूसरा इन
गीतों में आधुनिक समाज जो
पुरुष प्रधान है का दृश्य भी
दिखाई देती है। इन गीतों में
बाबला, बाबा,
नाना
का वर्णन होता है।
तेल
लगाने की रस्म समय गाये जाते
गीतः-
तैणूं
तेल लगावन आईयां,
आगे
बहना पीछे भरजाईयां।
वीरा
कुझ ताईया चाचियां दीयां
जाईयां।
उबटन
लगाते समय गाये जाने वाले
गीतः-
तेरे
खारे नू लगदे नापे तेरे काज
संवारन मापे।
तेरे
खारे नू लगदे हीरे तेरा काज
संवारन वीरे।
तेरे
खारे नू लगदे लाचे तेरा काज
संवारन चाचे।
तेरे
खारे नू लगदे जामें तेरा काज
संवारन मामें।
इस
तरह देखा जा सकता है कि विवाह
का पूर्ण कार्य मिलजुल कर
निपटाया जाता है। इस नानका
पक्ष व दादका पक्ष दोनों का
ही सुमेल रहता है। लड़की को
उबटन लगाने की रस्म औरतों
द्वारा की जाती है। इस लिए इस
गीत में मां,
चाची,
भाभी,
बहन,
मामी,
मौसी
का नाम आता है। लड़के को उबटन
लड़के के भाई,
दोस्त,
मामे,
चाचे,
जीजे
आदि मिल कर लगाते हैं। लेकिन
इस रस्म में विधवा औरत को आने
की आज्ञा नहीं होती। उबटन
लगाने के पश्चात् मामे द्वारा
लड़के/लड़की
को सांत (खारा
जो तेल लगाने की रस्म)
से
उठाता है। इसी लिए कहा जाता
है।
इहदी
नानी दे जाएयो,
इहनू
खारयों उतारयो
इहदे
नाने दे जाएयो इहनू खारयों
उतारयो।।
तिलक
धारण करने की रस्म को शगुन
लगाना कहा जाता है। इस समय भी
गीत गुनगुनाये जाते हैं।
वीरा
जे तू लगा गंढी तेरी मां ने
छकर वंडी।
यहां
यह दिखाई देता है कि प्राचीन
समय लोग खुशी के समय में मीठा
बांटते थे ‘शकर’ जो गुड़ की
बनती है बांटी जाती थी।
बारात
के स्वागत के समय जब बारात
पहुंचती है उस समय भी मिलनी
की रस्म से पहले गीत गाया जाता
हैः
साजन
आन मिलाए,
प्रभु
साजन आन मिलाए
धनवाद
ईश्वर दा करीये
धनवाद..........
जिसका
नाम लियां तर जाइए,
जिने
साजन आन मिलाये
प्रभु
साजन आन मिलाये
साजन.............
भांवर
के समय भी गीत गाये जाते हैंः
वछड़े
अछेर आटा छाणीयें
उठ
के लावां ले नी बाल अंझाणीए
बछड़े
अछेर कुकड़ बोलिया,
उठ
के लावां ले वे बुढ़े खोलिया।
इन
पंक्तियों में बेमेल विवाह
की झलक मिलती है। प्राचीन समय
में यह लोग कम आयु (नाबालिग)
में
ही लड़की का विवाह कर देते थे।
भांवर के समय के अन्य गीत भी
मिलते हैंः
पहली
लावें लाड़ा घुमिया
धन
जनेंद मां मुँह चुमियां।
दूजी
लावें लाड़ा घुमियां,
धन
लाड़े की बहन सिरचुमियां।
तीजी
लावें लाड़ा घुमियां।
धन
लाड़े की दादी मुंह चुमियां।
चौथी
लावें लाड़ा घुमियां,
धन
लाड़े दी भुआ मुँह चुमियां।
पंजवी
लावें लाड़ा घुमियां,
धन
लाड़े दी नानी मुँह चुमियां।
छेवी
लावें लाड़ा घुमियां,
धन
लाड़े दी मामी मुँह चुमियां,
सतवीं
लावें लाड़ा घुमियां,
धन
लाड़े की मौसी मुँह सिर चुमियां।
इस
तरह इन सात भांवरों के समय
लड़के की रिश्तेदार औरतों
द्वारा इस नव विवाह को स्वीकार
करते दिखाया गया है।
भांवर
के पश्चात् लड़के को उसकी
सालीयां (लड़की
की सखियां व बहनें)
उसको
घेरा डालती हैं। उस समय भी गीत
गाया जाता हैः
सलीयां
पाया घेरा हुण छुड़ावेगा
किहड़ा,
छुड़ावेगा
बाबल मेरा जिस नू दर्द वे मेरा।
सालिया
पाया घेरा हुण छुड़ावेगा
किहड़ा,
छुड़ावेगा
ताया मेरा जिस नू दर्द वे मेरा
इसी
तरह जब लड़का घुड़चढी करता
है। उस समय घोड़ी की वांगें
गुंथी जाती हैं। उस समय भी गीत
गाया जाता है:
भैणां
ने वांगा फड़ीयां,
वीरे
नू पाया घेरा।
हुन
वीरे नू छुड़ावेगा किहड़ा
छुड़ावेगा
बाबला मेरा जिस नू दर्द वे
मेरा
की
कुछ दिना वे वीरा वांग फड़ाई
अपनिया
भैणां नू बंद चड़ा देवां,
चाचे
दी धी नू चनन दा हार
अपनीयां
भैनां नूं में नित नित देवां,
चाचे
दी धी नू देवां इको वार।
इस
तरह यह लोक गीत अमीर सभ्याचार
का संकेत है।
डोली
के समय भी गीत गाये जाते हैंः-
बेल
नी मेरी बन बन कोलां,
देस
पराए कयों चली एं?
इक
वचन मेरे बाबल ने कीता,
वचना
दी बधी मैं चली आं।
बोल
नी मेरी बन बन कोलां,
देस
पराये क्यों चली एं?
एक
वचन मेरे वीरे कीता?
वचना
दी बधड़ी मैं चली आं।
बोल
नी मेरी बन बन कोलां,
देस
पराए क्यों चलीं एं?
एक
वचन मेरे दादे ने कीता,
वचना
दी बधड़ी मैं चली आं।
बोल
नी मेरी बन बन कोलां?
देस
पराये क्यों चली ऐं?
एक
वचन मेरे चाचे ने कीता,
वचना
दी बधड़ी मैं चली आं।
’ ’ ’ ’ ’
कणकां
ते छोलियां दा खेत हौली हौली
निसरेगा।
धरमी
बाबल दा देस हौली हौली विसरेगा।
कणकां
ते छोलियां दा खेत हौली-हौली
निसरेगा।
धरमी
वीरे दा देस हौली-हौली
विसरेगा।
कणका
ते छोलियां दा खेत हौली हौली
निसरेगा।
धरमी
दाद का देस होली होली विसरेगा।
कणकां
ते छोलियां दा खेत हौली-हौली
निसरेगा।
धरमी
चाचे दा देस हौली-हौली
विसरेगा।
’
’ ’ ’ ’ ’
तेरे
महिलां दे विचों वे बावला डोला
नहीं लंघदा,
इक
इट पुटा देवां धीये घर जा अपने।
तेरे
महिला दे विच वे बावला गुडिया
कौन खेले,
मेरियां
खेलन पोतरियां धीये घर जा
अपने।
यह
गीत उस समय गाये जाते हैं जब
लड़की ने वह घर परिवार छोड़ना
होता है जहाँ वह खेली,
जवां
होती है। इस घर को धरमी बावल
का देस नाम दिया जाता है तथा
ससुराल घर को पराया देस। इन
गीतों में दिखाया गया है कि
लड़की वचनों की बंधी हुई जा
रही है। अपनी इच्छा से नहीं।
पानी
वारते समय भी जब लड़का दुल्हन
को अपने घर लेकर आता है। उस
समय भी लोक गीत गुनगुनाये जाते
हैं-
पानी
वार बने दिए माये,
बना
तेरा बाहर खड़ा
सुखां
सुखदी नू एक दिन आये,
बना
तेरा बाहर खड़ा
पानी
वार लै बने दिए माये बना तेरा
बाहर खड़ा।
इस
रसम के पश्चात दूल्हा व दुल्हन
को घर वापिस आने पर मुँह जुठलाया
(जूठन)
जाता
है। जिसमें लड़की व लड़के को
मीठी चूरी या फिर मीठे बेसन
के लड्डू आदि से मुँह जूठन
किया जाता है। इस समय भी गीत
गाये जाते हैं।
लै
ला लाड़िये बुरकियां,
तेरा
मां नूं बिल्लीयां घुरकियां
लै
ले लाड़ीये बुरकियां
तेरी
मां नू बिल्लीयां घुरकियां।
इस
तरह से कबीर पंथियों में विवाह
की रस्में जारी रहती हैं।
विवाह से कुछ दिन पहले रात को
गीत बिठाये जाते हैं। औरतें
मिलजुल कर लड़के के विवाह में
घोड़ियां तथा लड़की के विवाह
में सुहाग गाती हैं। अंत में
देर रात जब यह थकावट से भर जाती
हैं तो नाच गा कर गिद्दा भांगड़ा
डाल कर थकावट दूर करती हैं।
गिद्दे की कुछ बोलियां इस तरह
होती हैंः-
मेंहदी
मेंहदी हर कोई आखे,
मैं
भी आखा मेंहदी,
बागां
दे विच सस्ती मिलदी,
हटीयां
ते मिलदी महंगी।
हेठा
कुंडी उत्ते सोटा,
चोट
दोहां दी सहंदी
घोट
घोट मैं हथां ते लाई,
बत्तियां
बन बन लहंदी,
मेंहदी
शगुनां दी,
बिन
धोतियां नहीं लहंदीं महेंदी
शगुनादी।
पिंडा
विचों पिंड सुनींदा,
पिंड
सुनींदा तलीयां,
ओत्थों
दे दो बल्द सुनींदें,
गल
विच ओहनां दे टलीयां,
भज
भज के उह मक्की बीजदे,
गिठ-गिठ
लगीयां छलीयां,
मेला
मुक्तसर दा
दो
मुटियारां चलीयां मेला।
’
’ ’ ’ ’
सुन
नी कुड़िये सुन नी चिड़िये,
तेरा
पुनियां तो रूप सवाया,
विच
सखीयां दे पैलां पावें
तैनूं
नचना किने सिखाया,
तू
हसदी दिल राजी मेरा,
ज्यूं
बिरछा दी छाया।
नच-नच
के तू हो गई दुहरी
ज्ञाग
गिद्दे नू लाया,
परीये
रूप दिये,
तैनू
रब ने आप बनाया परीये
.........
देस
मेरे दे बांके गबरू
मस्त
अलड़ मुटियारा,
नचदे-टपदे
गिद्दा पाऊंदे,
गादें
रहिंदे वारां,
प्रेम
लड़ी विच इंज परोए
ज्यों
कुंजा दीयां डारां,
मौत
नाल एह करण मखौलां,
मस्ते
विच प्यारा।
कुदरत
दे मैं कादर अगे
इहो
ही अरज गुजारां
देस
पंजाब दीयां
खिड़ियां
रहन बहारां देश
....................
कुछ
लड़कियां इस तरह से भी गीत
गाती हैं -
भूने
होए चब दाने,
असां
दिल दे छडिया,
तेरे
दिल दियां रब जाने।
मैं
ओसियसां पानी आं
ओह
कदों घर आवे
बैठी
काग उडानी आं।
सीसी
विच तेल होसी
उह
दिन खुशियां दे
जदों
सज्जना दा मेल होसी
लम्बियां
रातां ने,
उमरा
मुक जानियां
नहींओं
मुकणियां बातां ने
कोठे
ते किल माहिआ
लोकां
दियां रोण अक्खियां
साडा
रौंदा ए दिल माहिया।
चाणनियां
राता ने,
दुनियां
च सभ सोहने
दिल
मिले दियां बातां ने
रंग
खुर गया खेसी दा,
असां
एथो टुर जाना,
कि
मान परदेसी दा,
दो
पतर अनारां दे,
साडी
गली लंघ माहिया
दुख
टुटन बिमारां दे।
हथ
सुरख बटेरा ऐ,
असा
किहड़ा नित आवना,
साडा
जोगी वाला फेरा ऐ।
कुल
देवता पूजन के समय जिसे गोत
कनाल या रकाधे कहा जाता है के
समय भी गीत गाये जाते हैं। सभी
लौकिक रीतियों के साथ-साथ
वर-वधु
से कुल देवता का पूजन करवाया
जाता है। नव दम्पत्ति को आशीष
की कामना की जाती है। जिससे
जीवन के नये मार्ग पर चलने के
लिए पूर्णतया सौभाग्यपूर्ण
अवधारणाएं प्रस्तुत हों तथा
साथ ही इस दम्पत्ति में मधुर
सम्बन्धों का स्वरूप बना रहे
यही कामना की जाती है। इस समय
गाया जाने वाला गीत इस तरह हैः
जागो-जागो
जी जठेरियो तुहाणु कौन जगावे?
जागो
जागो जी जठेरियो तुहाणूं बना
जगावे।
आगे
नीला घोड़ा, पीछे
रतड़ा डोला,
पैरी
पैंदड़ा आवे।
जागो-जागो
जी जठेरियो तुहाणु कौन जगावे?
जागो-जागो
जी जठेरियो तुहाणु बना जगावे।
हथी
बकरे ते बतरे,
देहड़ा
देदड़ा आवे।
जागो
जागो जी जठेरियो तुहाणु कौन
जगावे।
अपने
बने दा डोला, तेरी
चरणी लियावे।
जागो-जागो
जी जठेरियो।
इस
तरह इन गीतों का अध्ययन करने
से मालूम होता है कि कबीर पंथी
लोगों का विवाह खुशियों से
भरपूर होता है। प्रत्येक रस्म
को प्रत्येक समय गीतों की मधुर
धुनों से निभाया जाता है। इन
लोक गीतों के कुछ लक्षण देखने
को मिलते हैं। इन लोक गीतों
में दुहराव बहुत ज्यादा मिलता
है अर्थात् एक ही पंक्ति को
विभिन्न रिश्तेदारों के नाम
के साथ प्रस्तुत किया जाता
है। विवाह वाले लड़के को कृष्ण
के रूप में दिखाया जाता है
वहीं विवाह वाली लड़की अधीनता
की अवस्था में दिखाई देती है।
वह प्रत्येक कार्य को वचनों
में बंधी हुई करती है तथा कोई
भी पग उठाने से पहले पिता तथा
सम्बन्धित रिश्तेदारों की
आज्ञा चाहती है। यह गीत बहुत
ही साधारण तथा सुन्दर होते
हैं। इन गीतों में प्रश्नोत्तरी
शैली है अर्थात् गीत में ही
प्रश्न किया जाता है,
उसका
गीत में ही उत्तर मिलता है।
सुन्दर बिंब विधान के प्रयोग
के साथ इन गीतों के गहरे अर्थ
होते हैं। कबीर पंथी कबीले
के विवाह प्रबन्ध में लोक
गीतों का महत्त्वपूर्ण स्थान
है। प्रत्येक रीति को निभाते
समय लोक गीत एक सुन्दर मनमोहक,
मनोरंजक
तथा योग्य वातावरण उत्पन्न
कर देते हैं। इन गीतों में इन
लोगों की मानसिकता तथा विवाह
का चित्र हू-ब-हू
झलकता है।
पंजाब
के कबीर पंथियों के धार्मिक
व सामाजिक रीति रिवाज़
कबीर
पंथी चाहे वह पंजाब में हैं
या हरियाणा में हैं,
या
फिर राजस्थान में हैं ये मूलतः
'मेघ'
जाति
के लोग हैं, जिनके
रीति रिवाज भी पूर्णतया मिलते
जुलते हैं। कुछ स्थानों पर
दूरी के प्रभाव के कारण वहां
के रिवाज भी प्रभावित हो चुके
हैं। लेकिन पंजाब के कबीर पंथी
जो कि ज्यादा ‘मेघ’ ही हैं और
जो सियालकोट व जम्मू से आये
हैं उनके रीति रिवाज चाहे वह
कहीं भी बैठे हैं मिलते जुलते
हैं। जिनको मुख्य चार भागों
में बांटा जा सकता है-
1.
जन्म
से सम्बन्धित रिवाज
2.
विवाह
से सम्बन्धित रिवाज का वर्णन
किया जा चुका है
3.
मृत्यु
से सम्बन्धित रिवाज
4.
अन्य
खुश के मौके से सम्बन्धित
रिवाज
वे
सभी धार्मिक व सामाजिक रीति
रिवाज आर्य समाज परम्परा के
वैदिक मन्त्रों से ही सम्पन्न
किये जाते हैं। लेकिन जो सिक्ख
परिवार हैं व ‘गुरु ग्रंथ
साहिब’ के अनुसार रीति रिवाज
करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी
रिवाज हैं वह चाहे हिन्दू और
चाहे सिक्ख अपनी जाति व बिरादरी
के हिसाब से ही करते हैं,
जो
एक जैसे ही होते हैं।
जन्म
से सम्बन्ध्ति रिवाज
गोद
भराई - यह
ऐसी रसम है जो कबीर पंथी जातियों
में नहीं की जाती,
लेकिन
बहुत में की जाती है। जब औरत
गर्भावस्था में आठवें महीने
में होती है और पूर्ण रातें
होती हैं तब बुधवार या अच्छा
दिन देख कर की जाती है। इसमें
लड़की के घर वाले उसके लिये
कपड़े व हार श्रृंगार का सम्मान
व फल लेकर आते हैं। सभी आस
पड़ोसी व बिरादरी के लोगों
को बुलाया जाता है वह उस ‘बहू’
को शगुन देते हैं। यह रीति
चाँद निकलने के आठ दिन बाद
होती है। घर में त्यौहार जैसा
माहौल होता है,
लड़की
के मायके वालों को मिठाई आदि
देकर विदा किया जाता है।
बच्चा
होने के बाद औरत से सवा महीने
तक (40 दिन)
घर
का काम नहीं करवाया जाता। इसके
बीच ही पाँचवें दिन मां और
बच्चे को नहलाया जाता है। फिर
तेहरवें दिन नहलाया जाता है।
इस दिन के बाद जच्चा को रसोई
में जाने की छूट मिल जाती है।
नामांकरण-
घर
के बड़े सदस्य पण्डित या ज्ञान
आदि से बच्चे का नामांकन करवाते
हैं। बच्चे की जन्म कुंडली
भी बनाई जाती है।
पगड़ी
बाँधना या मुण्डन करवानाः-
सिख
लोग बच्चों को पगड़ी बंधवाते
हैं। हिन्दू मुण्डन की रसम
करते हैं। सभी रिश्तेदारों
को बुलाया जाता है। नानके व
दादके आदि बच्चे को कपड़े आदि
उपहार देते हैं।
बकरा
देनाः- बड़े
लड़के भाव पलेठी के पुत्र का
बकरा दिया जाता है। यह अपनी-अपनी
देहुरियों पर चढ़ाया जाता
है। बकरा सभी बिरादरी के लोग
मिल कर खाते हैं। बच्चे को
बकरे के खून का टीका लगाया
जाता है।
कबीर
पंथी लोग भी प्रमुख सांस्कृतिक
लोगों की तरह लड़के के जन्म
पर अधिक प्रसन्नता जाहिर करते
हैं। यदि पहला शिशु लड़का पैदा
होता है तो उसे पलेठी का लड़का
कहा जाता है तथा उसका देहुरी
पर जाकर बकरा भी दिया जाता है।
जन्म
के बाद बच्चे के मुँह में शहद
या गुड़ डाला जाता है उसे
''गुड़ती''
देना
कहा जाता है। जिस कमरे में
बच्चे का जन्म होता है उसके
द्वार पर आम तथा नीम के पेड़
के पत्ते धागे से बाँध कर लटकाये
जाते हैं। इस का कारण उस कमरे
में किसी बाहर वाले का आना
निषेध कर दिया जाता है। इस
कमरे में कोई साधारण बाहर का
औरत या मर्द नहीं जा सकता।
दूसरा नीम के पत्तों में
रोगाणुओं को खत्म करने की
शक्ति होती है। इस लिए यह बच्चे
तथा मां की रोगों से रक्षा
करती है। थोड़ी सी सेठी सरसों
(सैंती
सरों) तथा
हिंग का टुकड़ा पीस कर कपड़े
में डाल कर माँ तथा बच्चे दोनों
की बाजुओं पर बाँध दिया जाता
है। जनेपेवाली स्त्री के पास
लोहे का चाकू आदि भी रखा जाता
है। यह उसको किसी भी डर से बचाने
के लिए किया जाता है।
बच्चे
वाले कमरे पर बहुत सी निषेध
आज्ञाएं लागू होती हैं। बाहर
की औरतें उस जनेपे वाली औरत
के कमरे में नहीं प्रवेश कर
सकतीं। किसी धागे-ताबीज़
वालों का गृह में प्रवेश वर्जित
होता है।
पाचवें
दिन नव जन्मे बच्चे को स्नान
करवाया जाता है। जन्म के तेहरवें
दिन मां तथा बच्चा दोनों को
फिर स्नान करवाया जाता है।
बच्चे तथा उसकी मां को नव वस्त्र
पहनाये जाते हैं। उसी दिन मां
बच्चे को गोद में उठा कर रसोई
में प्रवेश करती है। इसे चौंके
बैठाना कहा जाता है। इस दिन
वह मीठा पकवान बनाती है।
सवा
महीने तक जनेपे वाली औरत को
सूतक में माना जाता है। सवा
महीने के पश्चात् वह अपनी
दैनिक दिनचर्या का कार्य करना
आरम्भ करती है।
कबीर
पंथियो में नव जन्मे शिशु
‘गुड़ मनसा’ जाता है भावार्थ
है कि जठेरों का पूजन किया
जाता है। कुछ कबीर पंथियों
में गुड़ के साथ शिशु के कपड़े
भी मनसे जाते हैं। इसके पश्चात्
ही शिशु को नव वस्त्र पहनाये
जाते हैं। यह दिन वार देख कर
किया जाता है। इस दिन भी जठेरों
के पूजन के लिए गोबर से आंगन
पुतवा दिया जाता है और फिर
बेरी की शाखा खड़ी करके धूप
बत्ती जलाई जाती है। इसमें
सभी परिवार के लोग माथा टेक
कर प्रणाम करते हैं। शायद ऐसा
करने से बच्चे को कुल में शामिल
किया जाता है। बच्चे का गुड़
वस्त्र उसके नानके लेकर आते
हैं।
विवाह
से सम्बन्धित रिवाजों का वर्णन
किया जा चुका है।
अन्य
खुशी के मौकों से सम्बन्धित
रिवाजः-
इसमें
अपने धर्म व श्रम के अनुसार
काम किया जाता है। जैसे किसी
दुकान का मुर्हूत करना है,
लोहड़ी
या दीपावली मनानी है या बच्चों
का जन्म दिन मनाना है और या
शादी की वर्षगांठ है या शादी
विवाह के अवसर मनाये जाते हैं।
भांगड़ा आदि डाला जाता है।
कुछ लोग मौके के हिसाब से सतसंग
आदि भी करते हैं।
पंजाब
के कबीरपंथी मेघों में वर्जनाएंः-
इन
वर्जनाओं पर पहले-पहल
बहुत ध्यान दिया जाता था। अब
तेज़ी से बदलाव आ रहा है। इनको
कम ही लोग मानते हैं।
जैसे
किसी को दूध नहीं बेचना,
दूसरी
बिरादरी वाले को पीने को भी
नहीं देना लेकिन अब इसको कोई
नहीं मानता।
- घी
तराजू में नहीं चढ़ाना
- जब
घर में नया दूध आता है तो उसका
सुच्चा उतारना
- पहले
घी को जठेरों की देहुरी पर
भेजना।
- कुछ
लोग काला कपड़ा नहीं पहनते
- कुंवारे
लड़के लड़की मेंहदी नहीं
लगाते।
- कुछ
लोग दोहतरमान को पूजते हैं
कुछ लोग धी ध्यानी को ही मानते
हैं।
- सुरमा
मायके का ही प्रयोग करना होता
है।
- बालों
में काला परांदा नहीं लगाना।
कबीर
जयंती
जालन्धर
के कबीर पंथी लोग पूरी श्रद्धा
व उत्साह से कबीर के मन्दिरों
में कबीर की जयंती मनाते हैं।
लगभग सभी मन्दिरों में विशेष
कार्यक्रम को आयोजित किया
जाता है। यह दिन जालन्धर के
बाहर भी जहां कबीर पंथी लोग
हैं मनाया जाता है।
देखने
में आया है कि कबीर के मंदिर
जो ज्यादा पुराने नहीं है लगभग
पिछले एक दहाके से ही बन रहे
हैं। वहां पर पूरे श्रम से
कबीर पंथ के दिन त्यौहार मनाये
जाते हैं। जैसा कि देखा गया
है कि कबीर पंथी लोग आदतन
मन्दिरों आदि में नहीं जाते
हैं। लेकिन इस दिन खुला न्यौता
होता है।
मन्दिरों
में ठंडे मीठे जल की छबीलें
लगाई जाती है। लंगर आदि का भी
प्रबंध किया जाता है। कबीर
के भजन बोले जाते हैं। अलग-अलग
मण्डलियां कीर्तन करती हैं।
शामियाना लगा हुआ होता है।
कुछ लोगों को खास कर साधु-संतों
को बाहर से भी उपदेश देने के
लिये बुलाया जाता है। इसके
अलावाे शहर में भी धर्मिक व
राजनीतिक संगठनों को बुलावा
होता है।
कबीर
जी की मूर्ति पालकी में सजा
कर भव्य नगर कीर्तन निकाला
जाता है। उसके पीछे भारी भीड़
उमड़ी होती है। फूलों आदि की
वर्षा की जाती है। नगर कीर्तन
की समाप्ति के उपरान्त बुलाये
गये अतिथिगणों का मान सम्मान
किया जाता है।
इसी
दिन कबीर मंदिर में मंत्रों
भजनों आदि के उच्चारण के दौरान
मंदिर का झण्डा चढ़ाया जाता
है। पुष्पवर्षा भी की जाती
है।
यह
बात ध्यान देने योग्य है कि
इस दिन कबीर पंथी लोग मंदिर
में आते थे चले जाते थे। वहां
पर केवल 40-50 आदमी
औरतें ही थीं। लेकिन सतसंग व
शोभा यात्रा के समय भीड़ उमड़
पड़ती है। शोभा यात्रा के समय
रास्ते में सभी को प्रसाद
बांटा जाता है। खुशियां मनाई
जाती हैं। सभी लोग मिलजुल कर
यह त्यौहार मनाते हैं।
पंजाब
के कबीर पंथियों के मृत्यु
से सम्बन्ध्ति रीति रिविाज
जीवन
में जन्म के पश्चात मृत्यु
का होना निश्चित है। मृत्यु
ही जीवन की सबसे दुखदायक तथा
शोकपूर्ण स्थिति होती है।
आरम्भ में जब मृतक व्यक्ति
मनुष्य के स्वप्न में दिखाई
देने लगे तो आदि मनुष्य ने
रूहों में विश्वास कर लिया।
उनका विचार था कि मृत्यु के
पश्चात् मनुष्य का शरीर तो
खत्म हो जाता है परन्तु उस की
आत्मा हमेशा जीवित रहती है
तथा इधर-उधर
भटकती रहती है। मृतक व्यक्ति
की आत्मा ही बाद में अपने
रिश्तेदारों के स्वप्नों में
आती है। इसी आत्मा में विश्वास
को ई.बी.
टेलर
ने जीववाद का सिद्धांत नाम
दिया। लोग आत्मा को भटकने से
बचाने के लिए मृतक व्यक्ति
की आत्मा को शांति प्रदान करने
हेतु मृतक शरीर को विधिवत ढंग
से दफनाने लगे,
जो
बाद में जाकर अत्येष्टिक्रिया
की परम्परा में तबदील हो गई।
कबीर
पंथियों में भी मरते समय कुछ
रस्में निभाई जाती हैं। जब
कोई मर रहा हो तो उसे चारपाई
से नीचे उतार दिया जाता है।
यदि किसी बुजुर्ग की जान न
निकल रही हो तो उस से ‘बछिया’
दान कराई जाती है,
जो
पण्डित को या फिर बेटी को दे
दी जाती है। सिख हो तो उसे गुरु
ग्रंथ का पाठ सुनाया जाता है।
कुछ लोग मरने वाले को नीचे
उतार उस दीया बाती करते हैं।
मरने
के पश्चात् मरने वाले को नहलाया
जाता है। उसको कफ़न पहनाये
जाते हैं, जो
ससुराल व कुड़मों (समधि)
की
तरफ से होते हैं। उसके बाद
धर्म के अनुसार उस का संस्कार
कर दिया जाता है।
यदि
कोई पुरुष का निधन होता है तो
उसे ससुराल वाले कफ़न पहले
डालते हैं यदि कोई स्त्री का
निधन होता है तो उसके मायके
वाले पहले कफ़न डालते हैं।
यदि सुहागन मरी हो तो उसका
पूर्ण श्रृंगार किया जाता
है, मरने
के चौथे दिन फूल हड्डियां
उठायी जाती हैं। और राख इकट्ठी
की जाती है। अपनी श्रद्धा के
अनुसार उनका जल प्रवाह किया
जाता है। ज्यादा लोग हरिद्वार
जाते हैं। यदि बीच में रविवार
आ जाये तो उसे नहीं छोड़ते फिर
बगैर दिनों की गिनती किये फूल
चुन लेते हैं। मड़ी को लड़की
मरे तो लड़की वाले ढाँपते हैं।
आदमी मरे तो उसके ससुराल वाले
ढ़ाँपते हैं। उस पर छोटा सा
कपड़ा डालना होता है।
मृतक
व्यक्ति को जो सब से पहले उठाते
हैं उन्हें ‘कानी (कांधी)’
बोलते
हैं उन्हें चौथे रोज़ खाना
खिलाया जाता है। भाव दान पुण्य
किया जाता है।
मृतक
के घर जब तक मृतक का संस्कार
न हो जाये चूल्हा नहीं जलता।
शरीक या फिर कुड़म आदि खान-पान
का प्रबन्ध करते हैं।
औरत
का क्रिया कर्म दसवां व मर्द
का ग्यारहवां दिन किया जाता
है। अगर कोई बुजुर्ग मरे तो
उसे बड़ा भी किया जाता है।
यदि
कोई नौजवान मृत हो जाये तो
शमशान में एक आदमी रहता है कि
कोई उसकी हड्डियाँ न चुरा ले।
जिस के घर मृत्यु होती है,
उस
के घर 10-11 दिन
कोई भी चारपाई पर नहीं बैठता।
बड़ा लड़का खास प्रकार के सफेद
कपड़े पतनता है उसे ‘भुंगी’
कहते हैं। पुराने समय में सुना
है कि बुर्जुग की बहुएं उसकी
अर्थी के इर्द-गिर्द
धोती पहन कर चक्कर लगाती थीं।
बड़े बुर्जुग का निधन होने
पर बहुएं शमशान घाट में नंगे
पाँव ही जाती थीं व कुछ ही समय
वहां रहती थीं। मृतक की चिता
को बड़ा लड़का अग्नि देता है।
औरत को उसका पति अग्नि देता
है। फूलों को दूध से नहलाते
हैं। यदि कोई छोटा बच्चा मर
जाये तो उसे दफन करते हैं।
मृतक को जलाने के बाद सभी स्नान
करते हैं। मृतक के ग्यारह
महीने के बाद उसका ‘वरीना’
किया जाता है। चार वर्ष के
पश्चात् ‘चवरी’ की जाती है।
कपड़े, जूते,
चारपाई
आदि दान की जाती है। मृतक के
‘श्राद्ध’ भी किये जाते हैं।
विधवा होने पर औरत के श्रृंगार
की मनाही है। मृतक के घर 10
दिनों
तक शोक रखा जाता है। मृतक की
मौड़वीं मुकान होती है यदि
पुरुष हो तो ससुराल में और औरत
हो तो मायके में जाते हैं।
मृतक के पास एक काना भी रखा
जाता है। उस का संस्कार करने
से पहले उसके गिर्द मटके में
पानी डालकर घूम कर उसके सिर
की तरफ पानी को छोड़ते हुए
मटका फोड़ा जाता है। इसी तरह
से मृतक का वेदों की रीति के
अनुसार क्रियाकर्म किया जाता
है। कबीर पंथ में अब विधवा
विवाह की छूट है।
इस
अंत्येष्टि क्रिया के पश्चात्
की जाने वाली रीति मृतक व्यक्ति
के लिए ही की जाती है। प्रत्येक
जाति, नस्ल,
कबीलों
के अपने-अपने
संस्कार होते हैं। जिस कारण
वह एक दूसरे से भिन्न होते
हैं। पंजाब के कबीर पंथियों
में भी मृतक की अंत्येष्टि-क्रिया
से सम्बन्ध्ति अलग तरह की रीति
प्रचलित है।
कबीर
पंथी लोग परिश्रम का जीवन यापन
करते हैं। इस लिए यह काफी कठोर
होते हैं तथा दीर्घ आयु के
पश्चात् ही मरते हैं। परन्तु
मृत्यु तो सच्चाई है। लेकिन
इस कबीले के अधिक वृद्ध खाते-पीते,
चलते-फिरते
अचानक मामूली सी बीमारी के
पश्चात् प्राण त्याग देते
हैं। कुछ वृद्ध जब अपनी मृत्यु
के पास होते हैं वह थोड़ा बहुत
भोजन करके कुटुम्ब के भले के
लिए कुछ बातें बताकर आँखें
मूंद लेते हैं। इन वृद्धों
की मृत्यु का सभी परिवार को
बहुत दुःख होता है क्योंकि
यह अपनी आयु में किसी पर बोझ
बन कर नहीं जीवित रहते।
इस
कबीले के बुजुर्ग भगवान के
आगे यह ही प्रार्थना करते हैं
कि ‘भगवान उनको चलता फिरता
उठा ले वह किसी से सेवा न करवाये।’
मृत्यु
के उपरांत मृतक के सभी रिश्तेदारों
को आमंत्रित किया जाता है।
मृतक को स्नान करवाया जाता
है उसको सफेद वस्त्र पहनाये
जाते हैं। यदि कोई नौजवान
स्त्री की मृत्यु हो जाए तो
उसका शृंगार भी किया जाता है।
फिर फटा (तख्ता)
बनाया
या शमशानघाट से लिया जाता है।
उस फट्टे के ऊपर मृतक को रखकर
चार आदमी उठाकर शमशान भूमि
की ओर प्रस्थान करते हैं।
चारों पहले उठाने वालों को
कांधी बोला जाता है। शमशान
भूमि में मृतक के बड़े बेटे
द्वारा ‘मटका फोड़ा’ जाता
है। इस रीति के पश्चात् मृतक
की दिशा भी बदल दी जाती है। यह
विश्वास है कि ऐसा करने से
आत्मा को धोखा दिया जाता है
वह मृत के साथ ही शमशान भूमि
तक न पहुंच सके। बने हुए फटे
या तख्ते समेत ही शव (मृतक
शरीर) चिता
में रख दिया जाता है। यदि तख्ता
शमशान भूमि का हो तो उसे वहां
ही रख दिया जाता है। मृतक के
मुंह में अंत्येष्टि क्रिया
से पहले घी डाला जाता है। मृतक
की बहुएं मृतक के पांव की ओर
कुछ पैसे रख कर प्रणाम करती
हैं। शव को जलाने से पहले मृतक
के रिश्तेदारों की ओर से अन्तिम
दर्शन किए जाते हैं। मृतक का
बड़ा बेटा मृतक को अग्नि भेंट
करता है। बेटा न होने पर अन्य
नज़दीकी रिश्तेदार अग्नि
भेंट करता है।
अंत्येष्टि
क्रिया के समय ग्यारह मन लकड़ी
भाव लगभग पांच क्विंटल लकड़ी
का प्रयोग किया जाता है।
अंत्येष्टि क्रिया के पश्चात्
सभी रिश्तेदार घास के तिनके
तोड़ कर, घर
लौटते समय किसी जल के स्रोत
से स्नान करके वापिस घर लौटते
हैं। तिनका तोड़ने की रीति
एक तरह से यह प्रतीकात्मक अर्थ
ग्रहण करती है कि मृतक से सभी
तरह का नाता टूट चुका है।
किसी
व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात्
उसके परिवार द्वार इकट्ठ
(संबंधियों-मित्रों
का इकट्ठा होना)
किया
जाता है। जिसे रस्म पगड़ी या
रस्म क्रिया भी कहा जाता है।
लेकिन इससे पहले मृतक के
रिश्तेदार मृतक की अंत्येष्टि
की राख में से उसकी हडिड्यां
इक्ट्ठी करते हैं। इस कार्य
को फूल चुनना कहा जाता है। यह
मृत्यु के चौथे दिन किया जाता
है। उसके पश्चात् कांधियों
को भोजन करवाया जाता है। उसी
दिन राख को बहते पानी में प्रवाह
कर दिया जाता है। फूलों को
हरिद्वार या अन्य किसी स्थान
पर बहते जल स्रोत में प्रवाह
कर दिया जाता है। मृत्यु के
दसवें दिन औरत का और ग्यारवें
दिन पुरुष का इक्ट्ठ कर दिया
जाता है। उस दिन अपने गृह पधारे
हुए लोगों को भोजन करवाया जाता
है। इक्ट्ठ होने तक सभी नज़दीकी
रिश्तेदार अफसोस प्रगट करने
को आते रहते हैं। जब तक मृतक
का शव घर में पड़ा रहे उस घर
में आग नहीं जलाते। मृत्यु
के दिन समधी लड़की के सुसराल
वाले भोजन बनवाते हैं या फिर
शरीका भाईचारा। क्रिया वाले
दिन तक चारपाई पर बैठने की
वर्जना है। मृतक का ग्यारह
महीने पश्चात ‘वरीना’ किया
जाता है जिसे लोग बरसी कहते
हैं तथा चार वर्षों पश्चात्
‘चैवरी’ की जाती है। इन दिनों
पर सभी रिश्तेदार इकट्ठे होते
हैं। उनको भोजन करवाया जाता
है तथा दान दिया जाता है।
पंजाब
के कबीर पंथियों के रूप रंग,
स्वभाव,
वस्त्र,
मनोरंजन
तथा खान-पान
रूप
रंग तथा स्वभावः
सामान्य
जीवन से अभिप्राय है मानव के
जीवन जीने का तरीका जिसमें
उसके बाह्य जीवन को विशेष रूप
से देखा व परखा जाता है। बाह्य
जीवन के अन्तर्गत उसके रहन-सहन,
रीति-रिवाज,
अनुष्ठान
आदि सभी ऐसे पक्ष आ जाते हैं
जो किसी भी जाति अथवा प्रदेश
विशेष के लोगों का जीवन-यापन
विधि को समझने के लिए आवश्यक
होते हैं। जीवन की मूलभूत
आवश्यकताओं के लिए रोटी,
कपड़ा
और मकान का महत्व चिरकाल से
स्वीकार किया जाता रहा है।
इन्हीं की पूर्ति के लिए मनुष्य
परिश्रम करता है। इससे मनुष्य
के रूप रंग, स्वभाव,
वस्त्र,
मनोरंजन
तथा खान-पान
पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
पंजाब
के कबीर पंथियों के मर्दों
के रूप रंग साफ,
गेहूँ
रंगा तथा कद (ऊँचाई)
औसत
होती है। इन की अधिक जनसंख्या
दोआबा तथा माझा में है। कुछ
जनसंख्या मालवे में भी है।
माझे में कुछ कबीरपंथियों की
ऊँचाई लम्बी तथा भारी शरीरों
के होते हैं। अधिक कबीर पंथी
सिर के वाल कटवाते हैं तथा
मूंछे रखते हैं। यह सिर पर
चोटी नहीं रखते। माझे में रहते
कुछ कबीरपंथी दाढ़ी व केश रखते
हैं जो कि सिख धर्म का प्रभाव
है। ज्यादा लोगों के सिर के
केश काटे होते हैं वह काटी हुई
दाढ़ी व मूछें रखते हैं। माझे
के कुछ आदमी सावले रंग के भी
होते हैं।
माझा
के इलाके में रहने वाली कबीर
पंथी औरतों का रंग गेहूँ रंगा,
सांवला
तथा कुछ का काला भी पाया जाता
है। इन की ऊँचाई औसत और ऊंची
होती है। दोआबा,
दीनानगर,
जम्मू
तथा मालवा के क्षेत्र की औरतों
के नयन नक्श बहुत सुन्दर होते
हैं। इनके रंग गेहूं रंगे व
गोरे होते हैं। माझा क्षेत्र
की औरतों की सेहत अच्छी व मज़बूत
होती है। इनके नयन नक्श पंजाब
की औरतों से मिलते जुलते हैं।
कबीर
पंथी लोगों का स्वभाव खुला
तथा मिलनसार होता है। यह ज़रूरत
से अधिक वर्जनाओं को नहीं
स्वीकारते। यह लोग कठिन परिश्रम
करने वाले होते हैं। यह लोग
जुलाहा-गीरी
के काम के साथ-साथ
खेलों का सामान तथा शल्य
चिकित्सा में प्रयोग होने
सम्बन्धी सामान भी बनाते हैं।
गावों में यह लोग खेतीहर मज़दूर
हैं। इस के बिना यह लोग स्वयं
के काम-धन्धे
भी करते हैं। पढ़ लिख कर यह
लोग ऊँचे पदों पर भी बिराजमान
हैं।
यह
लोग अधिक अपनी बिरादरी में
ही रह कर खुश हैं। आधुनिक समय
में यह पाबंदी बहुत टूट पाई
है। यह आपस में बहुत स्नेह
करते हैं। आधुनिक समय में इनके
स्वभाव में भी परिवर्तन हुआ
है। अब यह मरने-मारने
तक भी चले जाते हैं।
वस्त्राः
व्यक्ति समाज का एक अभिन्न
अंग हैं। उसे संस्कृति का वाहक
कहा गया है और वस्त्र व्यक्ति
की सभ्यता, संस्कृति
और मानव के स्तर को व्यक्त
करते हैं। शरीर को सजाने के
साथ शरीर को ढंकने के लिए
वस्त्रों का प्रयोग किया जाता
है। मानव जीवन में इनका महत्त्व
तो इसी बात से स्पष्ट हो जाता
है कि जन्म से लेकर मृत्यु
पर्यन्त मनुष्य इनसे अलग नहीं
हो पाता।
आदि
मानव नग्नावस्था में रहता था
किंचित जागरूकता आने के कारण
अपने शरीर को वृक्षों के पतों,
छाल
तथा पशु-चर्म
से ढकना प्रारम्भ किया। सभ्यता
के साथ चरण बढ़ाते मानव ने
वस्त्रों का निर्माण किया और
आज वस्त्र हमारी संस्कृति का
अभिन्न अंग बन गए हैं। वेषभूषा
के माध्यम से किसी भी युग विशेष
की संस्कृति को पहचाना जा सकता
है क्योंकि वेशभूषा पर देशकाल
तथा सामाजिक वर्ग का प्रभाव
अवश्य रहता है। स्त्रियों व
पुरुषों के वस्त्र प्रायः
उनके सामाजिक स्तर के द्योतक
होते हैं। पहनने के अतिरिक्त
ओढ़ने तथा बिछाने के वस्त्र
भी किसी जाति और वर्ग विशेष
की संस्कृति के स्वरूप को
स्पष्ट करते हैं। इस प्रकार
वस्त्रोत्पत्ति कि तीन प्रमुख
कारण हैं- शरीर
रक्षा, अलंकरण
तथा शालीनता इनके अतिरिक्त
आत्माभिव्यक्ति भी एक कारण
माना जा सकता है। स्त्रियों
तथा पुरुषों के वस्त्र अलग-अलग
होते हैं।
पंजाबी
सांस्कृतिक पहनावे को विभिन्न
जातियों, सम्प्रदायों
तथा राष्ट्रों के परिधानों
द्वारा प्रभावित किया गया
है। उसी तरह कबीर पंथियों पर
भी विभिन्न क्षेत्रों के
परिधानों का प्रभाव पड़ा है।
कहा जाता है कि पहले इस कबीले
की औरतें घाघरा,
सलवार
कमीज़ दुपट्टा तथा साड़ी पहनती
थीं। कुंवारी लड़कियां सलवार
कमीज़-दुपट्टा
पहनती थीं। अंग्रेज़ी राज्य
के समय भी इनके परिधानों में
कोई बदलाव नहीं आया। यह पंजाब
की अन्य सामान्य औरतों की तरह
वस्त्र पतनती हैं।
इस
कबीले के पुरुष पहले से ही
सामान्य लोगों की तरह वस्त्र
पहनते हैं। यह लोग पैंट-कमीज़,
पायजामा-कुर्ता,
चादरा-कुर्ता
पहनते आए हैं। कुछ लोग सिर पर
साफा भी लपेटते हैं। इस की
लम्बाई पगड़ी से कम अढ़ाई गज
होती है। इसका कपड़ा पगड़ी
से मोटा होता है। इसे पगड़ी
की तरह सिर पर लपेट लिया जाता
है और ज़रूरत पड़ने पर इसे ओढ़
भी लिया जाता है। कुछ लोग इसे
कंधे पर रख कर भी चलते हैं।
लेकिन आधुनिक समय में यह लोग
आधुनिक पंजाबियों का पहनावा
ही पहनते हैं।
पंजाब
की कबीर पंथी औरतें हमेशा पूरे
आभूषण पहन कर नहीं रखतीं।
सामान्य यह कानों में काँटे
और बाली तथा नाक में कोका (नथली)
पहनती
हैं। कबीरपंथी स्त्रियां तथा
लड़कियां कान,
नाक
छिदवाती हैं।
राजस्थान
की कबीर पंथी औरतें घाघरा पनती
हैं। पुरुष धोती बांधते हैं।
सिर पर पगड़ी भी बाँधते हैं।
पंजाब में सिख कबीरपंथी भी
सिर पर पगड़ी बाँधते हैं। वह
अन्य पंजाबी जाटों जैसे वस्त्र
पहनते हैं।
इस
कबीले के बच्चों का पहरावा
भी अन्य पंजाबी बच्चों जैसा
होता है। पंजाब में इनके रंगरूप,
स्वभाव
व वस्त्रों से इन्हें पहचाना
नहीं जा सकता।
मनोरंजनः
पंजाब के कबीर पंथियों का
मनोरंजन पंजाब के सामान्य
लोगों की तरह है। यह लोग घर
बैठ कर टैलीविज़न देखते हैं।
वी.सी.आर.
तथा
सी.डी.डी.
से
भी मनोरंजन करते हैं। यह अन्य
सामान्य पंजाबियों की तरह ही
खेलकूद करते हैं। गावों के
लोग कबड्डी, हाकी,
फुटबाल
तथा शहरों में क्रिकेट आदि
का आनंद लेते हैं। जब शहरों
में इनके पास समय होता है तो
यह ‘ताश’ भी खेलते हैं। विवाह
शादियों में औरतें तथा मर्द
नाचते हैं गिद्दा भांगड़ा
होता है। पुरुष शराब का सेवन
भी कर लेते हैं जब इनके पास
फुरसत का समय रहता है तब यह
खाली बैठकर बातें करने को पसंद
करते हैं। कुछ लोग गीत सुनते
व सुनाते भी हैं। कुछ कबीरपंथी
लोग खाली समय में वैद्य का
कार्य भी करते हैं।
खान-पानः
पंजाब के कबीरपंथी लोगों का
अन्य पंजाब के लोगों की भांति
दैनिक खान-पान
है। यह लोग दाल-चावल
(भात)
अधिक
खाते देखे गए हैं। इसके बिना
अन्य पंजाबियों की तरह प्रत्येक
तरह की सब्जी व दाल तथा गेहूँ
की रोटी (फुलका)
खाते
हैं। कुछ कबीरपंथी लोग वैष्णव
भोजन भी पसंद करते हैं। जब कि
अन्य मांस तथा शराब का सेवन
भी कर लेते हैं। मक्की की रोटी,
सरसों
का साग साथ में माखन तथा दही
और लस्सी इनका मनपसंद भोजन
है। इनके खान-पान
में मुख्य रूप से दाल,
फुलका,
भात,
पूरी,
पापड़,
बड़ा,
पकौड़ी,
कढ़ी,
रायता,
दही,
साग
(शाक),
कचौरी,
सामौसे,
पकोड़े,
पनीर,
सब्जियां,
दूध
तथा मलाई, खीर,
माखन,
लड्डू,
जलेबी,
रसगुल्ले,
इमरती,
फैनी,
घेवर,
मालपुए,
चूरमा,
पेठा,
बर्फी,
पेड़ा,
खीर,
कुलफी,
मुरब्बा,
सूखे
मेवे तथा हरे फल,
आचार,
जल,
शरबत
आदि वस्तुओं का उपयोग किया
जाता है।
पंजाब
के कबीर पंथियों का व्यवसाय
रूप, भाषा
और बोली
व्यावसायिक
रूपः किसी भी संस्कृति की
पहचान के लिए उसके व्यवसायों
की जानकारी आवश्यक है। व्यवसाय
किसी भी संस्कृति के लोगों
के स्वभाव को बहुत प्रभावित
करते हैं। व्यवसाय किसी जाति,
धर्म
और कबीले की आर्थिक हालत पर
बहुत निर्भर करते हैं। इस
कबीले के व्यवसायों को इनकी
पृष्ठ-भूमि
बहुत प्रभावित करती है। कबीरपंथी
कबीले के व्यवसायों को भी
इतिहासिक पृष्ठभूमि से भिन्न
करके नहीं देखा जा सकता। पंजाब
में अंग्रेज़ राज्य के पहले
समय तक जब कबीर पंथी जम्मू व
इसके आसपास के क्षेत्रों में
निवासी थे, इनके
पास जीविका कमाने का कोई साधन
नहीं था। खेती करने के लिए
इनके पास ज़मीन नहीं थी। इनको
शूद्र माना जाता था। उच्च
श्रेणियों के लोग इनसे अस्पृश्यता
करते थे। इनको भूमि खरीदने,
रखने
की मनाही थी। यह लोग शिक्षा
भी प्राप्त नहीं कर सकते थे।
इनको अस्त्र-शस्त्र
रखने की वर्जना थी। लोग इनको
गावों में नहीं घुसने देते
थे। इनको स्पर्श तो दूर इनका
छाया भी लगने पर इनको दंडित
कर दिया जाता था। यह लोग गांव
से बाहर पृथक कुओं से पेयजल
प्राप्त करते थे। इनसे बंधुआ
मज़दूरी ली जाती थी। जम्मू
में कारे बेगार कानून लागू
था। जो बंधुआमज़दूरी से काम
नहीं करता था उसको दंडित किया
जाता था। उसे जुर्माना भी
लगाया जाता था। उसको पुलिस
से भी कोढ़े लगवाए जाते थे।
ऐसे कठिन समय में किसी व्यवसाय
की बात करना तो दूर सोचा भी
नहीं जा सकता था।
पंजाब
में महाराजा रणजीत सिंह के
राज्य के पश्चात् जब अंग्रेज़ों
ने पंजाब पर राज्य जमा लिया
तब कुछ लोग जम्मू से निकलकर
सियालकोट जो जम्मू से सटा हुआ
शहर है की ओर निकले। वहां इन्हें
बंधुआ मज़दूरी से छुटकारा
मिला। यह लोग खेती या कुली का
श्रम करते थे। वहां पर भी यह
कानून था कि कोई दलित या शूद्र
भूमि अपने नाम पर नहीं करवा
सकता। इस लिए यह लेाग हमेशा-हमेशा
खेतीहर मज़दूर ही रहे। इस समय
पंजाब में वोटों की खातिर,
जो
अंग्रेजों ने नियम बनाया था
कि आबादी के अनुपात से किसी
भी राजनीतिक दल को सीटों का
बंटवारा होगा के अनुसार इनको
सबसे पहले मुस्लिम लोगों ने
अपनी ओर खींचने का प्रयास
किया। उन्होंने इन्हें मुसलमान
धर्म ग्रहण करने पर एक लड़की
तथा पच्चीस एकड़ी (एक
मुरब्बा) भूमि
देने का प्रोत्साहन दिया।
उसी समय हिन्दुओं की ओर से
आर्य समाज ने शुद्धि आंदोलन
चला कर लाख से ज्यादा लोगों
को शुद्ध करके हिन्दू बना लिया
और उन्हें शूद्रों में स्थान
दिया। इसी तरह सिखों की ओर से
सिंघ सभा लहर ने इन को अपनी ओर
आकर्षित किया और सिख बनाया।
यहीं से इनके जीवन में बदलाव
शुरू हुआ।
इसके
पश्चात् देश का विभाजन हुआ।
सियालकोट व आस-पड़ोस
में बसने वाले एक लाख परिवार
वापिस जम्मू चले गए। एक लाख
के करीब परिवार भारतीय पंजाब
में आ बसे। इनका फिर से उजाड़ा
हुआ। घर-परिवार
छोड़ कर यह लोग दर-ब-दर
भटकने को मजबूर हो गए। 1962
में
जम्मू-कश्मीर
सरकार ने भी कारे बेगार कानून
समाप्त कर दिया। इन्हें भूमि
बंदोबस्त के तहत ज़मीन अलॉट
हुई। पंजाब में इन लोगों ने
बहुत परिश्रम किया। घास तक
काट कर बेचा। भूखे पेट भी रहे।
लेकिन दिल नहीं छोड़ा। यह लोग
पाकिस्तान में भी जुलाहागीरी
करते थे। पंजाब में दुबारा
फिर इन्होंने जुलाहागिरी
आरम्भ की। लेकिन यह काम कुछ
वर्षों के पश्चात् खत्म हो
गया। इन लोगों ने खेती मज़दूरी
के साथ-साथ
अन्य कुटीर उद्योगों में भी
काम किया। कठिन परिश्रम के
पश्चात् इन्होंने अपने बच्चों
को बढ़ाया लिखाया है।
आज
यह लोग खेलों का सामान,
शल्य
चिकित्सा में प्रयोग होने
वाला सामान बना रहे हैं तथा
अन्य कुटीर उद्योग चला रहे
हैं। यह लोग परिश्रम करने से
झिझकते नहीं। आज यह लोग बहुत
से तकनीकी कार्य करते हैं।
कुछ लोग भांति-भांति
की हाथ रेहड़ी लगाते हैं।
आधुनिक
समय में बदलाव के साथ इनके
व्यवसायों में बहुत परिवर्तन
हुआ। है। विद्या के प्रसार
के साथ कबीर पंथी लोग भी पढ़
लिख गए हैं तथा ऊँचे पदों पर
विराजमान हैं। लेकिन उपरोक्त
हालात के कारण इस कबीले का
बड़ा भाग आर्थिक रूप से अभी
भी पिछड़ा हुआ है। पहले यह लोग
भेड़-बकरी
चराते थे। आज यह छोटी-मोटी
दुकान या अन्य कार्य करके
आजीविका कमा रहे हैं।
भाषा
और बोलीः पंजाब के कबीरपंथी
मुख्य रूप से पंजाबी बोलते
हैं। इसके बिना इनकी अन्य
कबीलायी भाषा व बोली नहीं है।
जम्मू के कबीरपंथी पंजाबी,
डोगरी
भाषा बोलते हैं। हरियाणा के
कबीर पंथी पंजाबी,
हिन्दी
व हरियाणवी भाषा बोलते हैं।
राजस्थान के कबीरपंथी पंजाबी
व हिन्दी भाषा बोलते हैं।
हिमाचल प्रदेश के कबीर पंथी
पंजाबी व पहाड़ी भाषा बोलते
हैं। यह देखा गया है कि कबीर
पंथी जिस क्षेत्र में बसते
हैं वहां की भाषा ही पंजाबी
के साथ बोलते हैं।
पंजाब
के कबीर पंथियों का सांस्कृतिक
बदलाव
विज्ञान
की उन्नति से जीवन के प्रत्येक
क्षेत्र में नये आविष्कार
हुए हैं। जिससे सम्पूर्ण जीवन
व्यवहार परिवर्तनशील रहा है।
इस परिवर्तन के कारण हमारी
सामाजिक संस्कृति में,
रीति-रिवाज,
लोगों
की मानसिकता तथा व्यावहारिक-कीमतों
में बदलाव आना आवश्यक है। जैसे
प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति
होती है वैसे ही प्रत्येक
मनुष्य के भीतर दूसरों से
भिन्न संस्कृति होती है। जो
उसकी अपनी अभिव्यक्ति से दिखाई
देती है। बदलते हुए मौसमों,
नई
बातों, नए
चेहरों, धर्मों
आदि से गुजरते हुए धीरे-धीरे
बहुत कुछ और साथ आ जुड़ता है
तथा बदले में बहुत कुछ भीतर
से बाहर भी निकाला जाता है।
ऐसा कुछ ही कबीलों की संस्कृति
के बारे में है।
हम 21वीं
शताब्दी की ओर जा रहे हैं।
जीवन में बहुत से बदलाव बहुत
शीघ्रता से आ रहे हैं। इस बदलते
हुए परिपेक्ष्य में कबीर पंथी
संस्कृति भी प्रमुख संस्कृति
में मिल रही है। भारतीय राज्यों
जैसे असम, आंध्र
प्रदेश के घने जंगलों में तथा
दूर विदेशों में आस्ट्रेलिया
की धरती पर कबीलों का अस्तित्व
आज भी कामय है। यह कबीले जंगलों
में रहने के कारण यातायात तथा
संचार प्रबंध से पूरी तरह न
जुड़ने के कारण ही मूल सभ्यता
में शामिल नहीं हुए हैं। परन्तु
पंजाब जैसे प्रगतिशील तथा
देश के अग्रणी राज्य में इस
कबीले का अस्तित्व अश्चर्यजनक
तथ्य है। लेकिन यह बात है
शत-प्रतिशत
सच।
शताब्दियों
पहले जम्मू के क्षेत्र में
बसता यह कबीला कुछ विवशताओं
के कारण घर से निकल पड़ा। यह
अंग्रेज़ों के समय के सिख
राज्य में सियालकोट,
मलखावला,
शेखपुर
तथा अन्य क्षेत्रों में दाखिल
हुआ। वहां पर जा कर बस गया।
लेकिन देश के बंटवारे के कारण
इन्हें वहां से पलायन करना
पड़ा। यह लोग घरों से निकल
पड़े। इस यात्रा के पीछे न
जाने कोई वर था या अभिशाप।
पंजाब आ कर इन्होंने यहां की
हरी-भरी
ज़मीनों पर अपना जीवन निर्वाह
आरम्भ किया। लेकिन यह फिर भी
चलते रहे, यह
पूरे पंजाब,
हरियाणा
व राजस्थान में पहुंच गए। कुछ
लोग हिमाचल में भी चले गए।
बहुत अधिक जम्मू वापिस चले
गए। अब तो यह लोग पूरे देश में
फैले हुए हैं। यहां तक कि
विदेशों में भी बसते हैं। ऐसा
दुनियां का कोई देश नहीं जहां
कबीर पंथी लोग नहीं रहते।
ज्यादा
समय तक यह कबीर पंथी अपने आप
को अन्य लोगों से भिन्न नहीं
रख सके। पंजाब की उन्नति इन
पर प्रभाव डालने लगी। यह सामान्य
संस्कृति में घुल-मिल
गए। पंजाब में समय-समय
पर चली धार्मिक,
सामाजिक
लहरों के प्रभाव के कारण
अस्पृश्यता बहुत कुछ समाप्त
हो गई है। इस सामाजिक परिवर्तन
के कारण भी कबीर पंथियों को
आगे बढ़ कर पंजाबी संस्कृति
में घुलने मिलने का महत्त्वपूर्ण
समय मिला। स्कूलों में दूसरे
धर्मों के बच्चों के साथ मिल
बैठ कर पढ़ना,
खेलना,
खाना-पीना
सामान्य बात है। बहुत से कबीर
पंथी लोग पढ़ लिख कर ऊँचे पदों
पर पहुंच चुके हैं। वैसे इन
पढ़े लिखे कबीर पंथियों की
संख्या बहुत अधिक नहीं है।
परन्तु फिर भी इस कबीले में
इनका एक वर्ग अवश्य बन गया है।
कबीर पंथी कबीले का बड़ा भाग
सामान्य पंजाबियों के निचले
वर्ग जैसा जीवन यापन कर रहा
है।
यदि
इस कबीले के व्यवहार को ध्यान
से देखा जाये तो मुख्य रूप से
इसको चार भागों में बांटा जा
सकता है। यह चारों भाग आगे
अपने सब वर्गों का प्रतिनिधित्व
करते हैं। प्रथम वर्ग में वह
व्यवसायी वर्ग सम्मिलित है
जो विद्या ग्रहण करने में सफल
हुए तथा अच्छी सेवाओं में
कार्यरत रहे। वह अपने-सह
कर्मियों के प्रभाव से उनके
जैसे हो गए। इस प्रयत्न में
उनमें से अधिकांश लोगों ने
अपने नाम के साथ जो उप-जाति
(गोत्र)
की
उपाधि (पदवी)
भी
लगा ली है क्योंकि वह अपनी
जाति को नीची समझ कर छिपाने
लगे हैं। यह लोग मन में पैदा
हुई हीन भावना से ग्रस्त हैं।
जो मनोविज्ञानी फ्रायड के
अनुसार एक ऐसी बीमारी है जो
व्यक्ति को भीतर हो भीतर निगल
जाती है। इस वर्ग के लोगों पर
अधिक हिन्दू धर्म का प्रभाव
पड़ा है। परन्तु आंशिक रूप
से सिख धर्म से भी प्रभावित
हैं। गावों से निकल कर यह लोग
शहरों में जीवन-यापन
करने लगे हैं।
दूसरे
वर्ग में वह व्यवसायी वर्ग
सम्मिलित है जिन का मुख्य
व्यावायिक कार्य खेतीबाड़ी
है। इसके साथ वह क्रय-विक्रय
(व्यापार)
करते
हैं। इनमें पढ़े लिखे व नौकरियां
करते लोग भी सम्मिलित हैं।
यह लोग दूसरी जातियों की
रीति-रिवाजों
से प्रभवित हैं फिर भी अपनी
पारम्परिक रीतियों को समेटे
हुए हैं। यह लोग रीतियों को
निभाते समय अपने लाभ को मद्देनज़र
रखते हैं।
तृतीय
वर्ग में वह लोग सम्मिलित हैं
जो दूसरे वर्ग के ही कार्य
करते पढ़े-लिखे
लोग हैं जो समाज में अपना स्थान
बनाने के साथ आधुनिक संसाधनों
का प्रयोग करते हुए भी अपनी
प्रमुख पारम्परिक रीतियों
को निभा रहे हैं। इस वर्ग की
मानसिकता में कहीं न कहीं यह
सोच विद्यमान है कि अपनी कैसे
भी हो कबीलाई पहचान को बनाये
रखा जाए। अपनी जाति को नीची
समझ कर छिपाने की रीति इन में
नहीं है। यह अपनी परम्परा की
रीतियों को प्रसन्नता से करते
हैं।
चौथे
वर्ग में वे लोग सम्मिलित हैं
जो अभी पढ़ लिख नहीं सके या
फिर पढ़ लिख कर जिन को नौकरी
नहीं मिली। वह आर्थिक मंदहाली
के कारण निचले दर्जे का जीवन-यापन
कर रहे हैं। मज़दूरी करना व
अन्य छोटे-मोटे
व्यवसाय करना इनका काम है।
इनके पास इतनी पूंजी नहीं है
कि यह वर्ग अपना स्वयं का
व्यवसाय प्रारम्भ कर सके। यह
वर्ग समूचे कबीले का आधे से
ज्यादा भाग है। अपनी पारम्परिक
रस्मों रीतियों को संभाले
बैठा यह वर्ग अपने पैतृक कार्य
में जीवन यापन करने को मजबूरी
में आदत बना बैठा है।
इस
कबीले का अपना न्याय प्रबन्ध
था जिसमें सभी छोटे-बड़े
झगड़ों का फैसला हो जाता था।
छोटे-छोटे
मसले जैसे पैतृक सम्पत्ति का
बंटवारा, विवाह
तथा सगाई आदि से पैदा हुए झगड़े
यह आज भी मिल बैठ कर कबीले के
बड़े-बूढ़े
निपटाते हैं।
लड़कों
के जन्म व विवाह शादी के अवसर
पर यह जठेरों का पूजन करते हैं
तथा देहुरियों पर जा कर बकरे
की बलि भी देते हैं।
अंत
में कहा जा सकता है कि यह कबीला
लम्बे समय के पश्चात् भी अपनी
पहचान बनाये हुए वैज्ञानिक
युग में भी मुख्य धारा में
सम्मिलित होने के लिये प्रयत्नशील
है।
संदर्भ
1.
जीत
सिंह जोशी, पंजाब
सभ्याचार बारे,
पृ.
91
2.
परमजीत
सिंह सिद्धु,
मानव
विज्ञानक भाषा विज्ञान,
पृ.
238
3.
करनैल
सिंह थिंद, लोकयान
अध्ययन, पृ.
114
4.
जसविंदर
सिंह, सभ्याचार
ते किसा कावि,
पृ.
137
5.
वही,
पृ.
137
6.
वही,
पृ.
138
7.
वही
पृ. 138
8.
वही,
पृ.
141-142
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